अध्याय-3

कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान अर्थशास्त्र अध्याय-3

मुद्रा और साख

मुद्रा:-

मुद्रा (currency, करन्सी) पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिस से दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है। इसमें सिक्के और काग़ज़ के नोट दोनों आते हैं। आमतौर से किसी देश में प्रयोग की जाने वाली मुद्रा उस देश की सरकारी व्यवस्था द्वारा बनाई जाती है। मसलन भारत में रुपया व पैसा मुद्रा है।

मुद्रा के बारे में हम उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों के आधार पर बात कर सकते हैं। सामान्यतः हम मुद्रा के कार्यो में विनिमय का माध्यम, मूल्य का मापक तथा धन के संचय तथा स्थगित भुगतानों के मान आदि को शामिल करते है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा की परिभाषा उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों के आधार पर दी है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति के गुण का होना बहुत जरूरी है यदि किसी वस्तु में सामान्य स्वीकार होने की विशेषता नहीं है तो उस ‘वस्तु’ को मुद्रा नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार, मुद्रा से अभिप्राय कोई भी वह वस्तु है जो सामान्य रुप से विनियम के माध्यम, मूल्य के माप, धन के संचय तथा ऋणों के भुगतान के रुप में स्वीकार की जा सकती है।

मुद्रा के प्राथमिक कार्य

प्राथमिक कार्यां में मुद्रा के उन सब कार्यों को शामिल करते है जो प्रत्येक देश में प्रत्येक समय मुद्रा द्वारा किये जाते हैं इसमें केवल दो कार्यों को शामिल किया जाता है।

  1. विनिमय का माध्यम

विनिमय के माध्यम का अर्थ होता है कि मुद्रा द्वारा कोई भी व्यक्ति अपनी वस्तुओं को बेचता है तथा उसके स्थान में दूसरी वस्तुओं को खरीदता है। मुद्रा क्रय तथा विक्रय दोनों को बहुत आसान बना देती है। जबसे व्यक्ति ने विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा का प्रयोग किया है, तभी से मनुष्य की समय तथा शक्ति की बहुत अधिक बचत हुई है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण भी है इसलिए मुद्रा का विनिमय का कार्य आसान बन जाता है।

  1. मूल्य का मापक

मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों को माप सकते हैं बहुत समय पहले जब वस्तु विनिमय प्रणाली होती थी उसमें वस्तुओं के मूल्यों को मापने में बहुत कठिनाई होती थी। अब वर्तमान में हम मुद्रा का प्रयोग करते है तो वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों को मापने ये कोई कठिनाई नहीं आती है क्योंकि मुद्रा का मूल्य के मापदण्ड के रूप में प्रयोग किया गया है। व्यापारिक फर्मे अपने लाभ, लागत, हानि, कुल आय आदि का अनुमान आसानी से लगा सकती है। मुद्रा के द्वारा किसी भी देश की राष्ट्रीय आय प्रति व्यक्ति आय की गणना की जा सकती है तथा भविष्य के लिए योजनायें भी बनाई जा सकती हैं।

गौण कार्य

गौण कार्य वे कार्य होते हैं जो प्राथमिक कार्यों की सहायता करते है। धीरे -धीरे जब अर्थव्यवस्था विकसित होती है तो सहायक कार्यों की भूमिका बढ़ जाती है सहायक कार्यों में हम निम्नलिखित कार्यो को शामिल करते हैं।

  1. स्थगित भुगतानों का मान

मुद्रा के इस कार्य में हम उन भुगतानों को शामिल करते है जिनका भुगतान वर्तमान में न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिया जाता है। स्थगित भुगतानों में ऋणों के भुगतानों को भी शामिल किया जाता है, वस्तु विनिमय प्रणाली में जब हम ऋण लेते थे उसमें मूलधन तथा ऋण का निर्धारण करना बहुत मुश्किल होता था परन्तु मुद्रा के प्रचलन के बाद हमें इस तरह की किसी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है और मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का भी गुण पाया जाता है। इससे किसी भी देश के व्यापार तथा वाणिज्य का विकास संभव हो जाता है औैर जब मुद्रा स्थगित भुगतानों के रूप में कार्य करती है तो पूंजी निर्माण तथा साख निर्माण भी बहुत अधिक होता है।

  1. मूल्य का संचय

जब वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी उस समय केवल वस्तुओं को आपस में विनिमय कर सकते थे वस्तुओं को संचयित नहीं कर सकते है, परन्तु अगर आपको मुद्रा का खर्च करने का विचार न हो तो आप मुद्रा को संचय भी कर सकते है। जब हम मुद्रा के रूप में बचत करते है तो हमें बहुत कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है और मुद्रा को सब लोग सामान्य रूप से स्वीकार भी करते है, और मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन भी नहीं होता है। परम्परागत अर्थशास्त्री मुद्रा को केवल विनिमय का माध्यम ही मानते थे जबकि कैम्ब्रिज अर्थशास्त्री मुद्रा के संचय कार्य पर अधिक बल देते थे।

  1. मूल्य का हस्तांतरण

मुद्रा के द्वारा मूल्य का हस्तांतरण आसानी से हो जाता है मुद्रा में सामान्य स्वीकृति तथा तरलता का गुण होने के कारण हम इसको आसानी से हस्तांतरित कर पाते है। वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं का हस्तांतरण करना बहुत मुश्किल कार्य होता था जब लोगों के पास ज्यादा धन होता है तो वे इसको उधार देकर ऋण के रूप में आय प्राप्त कर सकते है और जिन लोगों को मुद्रा की आवश्यकता है वे मुद्रा के द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर सकते है।

आकस्मिक कार्य

आकस्मिक कार्यो की भूमिका देश के आर्थिक विकास के साथ बढ़ती जाती है। आकस्मिक कार्य निम्नलिखित है।

  1. अधिकतम सन्तुष्टि

मुद्रा को खर्च करके एक व्यक्ति अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करता है क्योंकि मुद्रा से वह वस्तुएं तथा सेवायें खरीदता है तथा उससे उपयोगिता प्राप्त करता है। इसी प्रकार उत्पादक भी अधिकतम लाभ प्राप्त करता है तथा समाज मुद्रा से अपने कल्याण को भी बढ़ा सकता है। मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं को उनकी सीमान्त उपयोगिता तथा साधनों को उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर कीमत देकर अधिकतम सन्तुष्टि तथा लाभ प्राप्त कर सकते है।

  1. राष्ट्रीय आय का वितरण

मुद्रा के द्वारा राष्ट्रीय आय का वितरण करना भी बहुत आसान हो गया है प्रत्येक साधन को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर कीमत देकर राष्ट्रीय आय का विवरण कर सकते है परन्तु जब वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी उस समय राष्ट्रीय आय का वितरण तथा माप करना बहुत कठिन था । मुद्रा के द्वारा हम मूल्य को माप भी सकते है और राष्ट्रीय आय का अनुमान आसानी से लगा सकते है। राष्ट्रीय आय को मुद्रा द्वारा मजदूरी लगान, ब्याज तथा लाभ के रूप में वितरित भी कर सकते हैं।

  1. पूंजी की तरलता में वृद्धि

वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं में तरलता का गुण नहीं होता था परन्तु मुद्रा में सामान्य स्वीकृति होने के कारण मुद्रा हमारी पूंजी को तरल बनाये रखती है। हम वस्तुओं के रूप में पूँजी को लेने से मना कर सकते है परन्तु मुद्रा में सामान्य स्वीकृति होने से उसे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। केन्ज ने बताया कि हम मुद्रा का तीन उदेश्यों के लिए मुद्रा की मांग करते है – 1. सौदा उद्देश्य 2. सावधानी उद्देश्य 3. सट्टा उद्देश्य

  1. साख का आधार

वस्तु विनिमय प्रणाली में साख का निर्माण संभव नहीं था परन्तु जबसे मुद्रा का प्रचलन हुआ है। मुद्रा द्वारा हम साख का निर्माण भी कर सकते है। वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी देशों में चेक ड्राफ्ट, विनिमय पत्र इत्यादि साख पत्रों का प्रयोग किया जाता है। लोग अपनी अतिरिक्त आय को बैंकों में जमा करवाते है और इन्हीं जमाओं के आधार पर बैंक साख का निर्माण करते हैं।

  1. शोधन क्षमता की गारन्टी

मुद्रा का एक कार्य यह भी है कि यह किसी फर्म संस्था या व्यक्ति की शोधन क्षमता की गारन्टी भी देती है। प्रत्येक व्यक्ति, फर्म संस्था आदि को अपनी शोधन क्षमता की गारन्टी बनाये रखने के लिए अपने पास कुछ न कुछ मुद्रा जरूर रखनी पड़ती है। अगर उस व्यक्ति संस्था अथवा फर्म के पास मुद्रा नहीं है तो उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है।

मुद्रा का उपयोग:- 

मुद्रा का उपयोग अनेक प्रकार के लेन – देन  में किया जाता है। मुद्रा के द्वारा वस्तुएँ खरीदी और बेची जाती हैं। जिस व्यक्ति के पास मुद्रा है, वह इसका विनिमय किसी भी वस्तु या सेवा खरीदने के लिए आसानी से कर सकता है।

मुद्रा का महत्व

वर्तमान समय में मुद्रा इतनी आवश्यक तथा महत्वपूर्ण हो गई है कि मुद्रा के गुण व दोषों का अध्ययन ही अर्थशास्त्र के अध्ययन का प्रमुख भाग बन गया है। मुद्रा के महत्व को हम निम्नलिखित तीन भागों में बांट सकते हैं।

आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का प्रत्यक्ष महत्व

वर्तमान समय में मुद्रा का अर्थशास्त्र के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत महत्व है बिना मुद्रा के हम वर्तमान समय में एक दिन भी नहीं गुजार सकते। आर्थिक क्षेत्रों में मुद्रा का प्रत्यक्ष महत्व निम्नलिखित हैः

उपभोग क्षेत्र में महत्व

अर्थशास्त्र में अगर किसी व्यक्ति के पास मुद्रा नहीं है तो वह अपनी इच्छानुसार वस्तुएं नहीं खरीद सकता है। व्यक्ति को जो आय काम करने से प्राप्त होती है वह मुद्रा के रूप में होती है और इसी आय को वह अपनी इच्छानुसार खर्च करके अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करता है एक उपभोक्ता विभिन्न वस्तुओं अपनी आय को इस प्रकार खर्च करता है कि वस्तुओं में मिलने वाली उपयोगिता उनकी कीमत के बराबर हो।

उत्पादन के क्षेत्र में महत्व

उत्पादन के क्षेत्र में यदि उत्पादक के पास मुद्रा है तो वह बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकता है। उत्पादन के क्षेत्र में मुद्रा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उत्पादक उसी वस्तु का उत्पादन करता है जिसकी बाजार में मांग हो तभी वह अपने लाभ को अधिकतम कर सकता है। अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादकता तथा साधनों को मुद्रा के रूप में दी जाने वाली साधन कीमत का अनुपात भी बराबर होना चाहिए।

विनिमय के क्षेत्र में महत्व

वस्तु विनिमय प्रणाली में हम प्रत्येक वस्तु की कीमत तथा लागत का अनुमान नहीं लगा पाते थे परन्तु जब से मुद्रा का प्रचलन हुआ है तब से मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली के दोषों को दूर कर दिया है। मुद्रा के द्वारा हम प्रत्येक वस्तु की कीमत, लागत तथा उत्पादक की आय को अनुमान लगा सकते है वर्तमान समय में मुद्रा का विनिमय के क्षेत्र में बहुत अधिक महत्व है।

व्यापार के क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के विकास के कारण अन्तर्क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। वस्तु विनिमय प्रणाली में व्यापार करते समय हमें बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था और हमारे व्यापार का क्षेत्र बहुत सीमित होता था। मुद्रा के विकास के कारण उत्पादन का पैमाना भी बढ़ गया है। उत्पादन अधिक होने से बाजारों का विकास हुआ और अन्तर्क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आकार बढ़ा है।

वितरण के क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के आविष्कार के कारण राष्ट्रीय आय के वितरण में उत्पादन के साधनों को उनका भाग देना बहुत आसान हो गया है। मुद्रा के रूप में पूंजी को ब्याज, श्रम को मजदूरी, भूमि को लगान तथा उद्यमी को लाभ देना सरल होता है। वस्तु विनिमय प्रणाली में उत्पादन के साधनों को उनका भाग देना इतना सरल काम नहीं था।

पूंजी निर्माण

वस्तु विनिमय प्रणाली में बचत और निवेश करना संभव नहीं था। मुद्रा के आविष्कार के कारण हम आसानी से बचत तथा निवेश कर सकते है। व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो आय बच जाती है उसे बचत कहते है। इसी बचत से निवेश हो पाता है और निवेश के द्वारा ही पूंजी निर्माण संभव हो पाता है।

आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का अप्रत्यक्ष महत्व

अप्रत्यक्ष रूप से मुद्रा हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करती है। आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का अप्रत्यक्ष महत्व निम्नलिखित है।

वस्तु विनिमय की असुविधाओं से छुटकारा

वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत मूल्य का मापन तथा संचय करना संभव नहीं था। परन्तु मुद्रा के विकास के कारण अब हम मूल्य को माप भी सकते है तथा मुद्रा को संचय भी कर सकते है और मुद्रा के प्रचलन के बाद हमारे समय तथा धन की बचत संभव हुई है और इसी धन को हम आगे निवेश करते है।

साख निर्माण

मुद्रा के प्रचलन के बाद ही साख का निर्माण संभव हो पाया है। व्यक्ति अपनी अतिरिक्त आय को बैकों में जमा करता है और इसी प्राथमिक जमाओं के आधार पर व्यापारिक बैंक साख का निर्माण करते है। मुद्रा के द्वारा ही साख का निर्माण हो सकता है।

आर्थिक विकास का सूचकांक

मुद्रा के द्वारा ही हम प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय आय का अनुमान लगा सकते है और यह भी देख सकते है कि क्या राष्ट्रीय आय के वितरण में समानता है और अगर राष्ट्रीय आय के वितरण में समानता है तो हम कह सकते है कि आर्थिक विकास हो रहा है मुद्रा के द्वारा ही हम विभिन्न देशों के आर्थिक विकास की तुलना कर सकते हैं।

पूंजी की गतिशीलता में वृद्धि

वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में बहुत कठिनाई होती थी मुद्रा के द्वारा हम पूंजी को एक स्थान से दूसरे स्थान, एक उद्योग से दूसरे उद्योग में आसानी से ले जा सकते है। पूंजी के गतिशील होने के कारण पूंजी की उत्पादकता बढ़ती है और देश का उत्पादन बढ़ता है।

सामाजिक कल्याण का मापक

वर्तमान समय में विश्व के सभी देशों को सरकारों का लक्ष्य आधिकतम सामाजिक कल्याण तथा देश में उपलब्ध संसाधनों का कुशलतापूर्वक विदोहन करना है और सरकार मुद्रा द्वारा ही तय कर पाती है कि राष्ट्रीय आय में से कितना भाग सामाजिक कल्याण पर खर्च करना है। सामाजिक कल्याण में शिक्षा, बिजली पानी मनोरंजन, आवास, सामाजिक सुरक्षा आदि पर व्यय शामिल करते है।

अनार्थिक क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

मुद्रा ने न केवल आर्थिक क्षेत्र को प्रभावित किया बल्कि सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मुद्रा का अनार्थिक क्षेत्र में महत्व निम्नलिखित हैः

सामाजिक क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के विकास के कारण लोगों को सामाजिक तथा आर्थिक दासता से छुटकारा मिल गया है। सामान्तवादी युग में जब मुद्रा का विकास नहीं हुआ था लोग बड़े जमीदारों के पास सेवकों के रूप में काम करते थे ओर वे अपने व्यवसाय को बदल नहीं सकते थे लेकिन मुद्रा के विकास के बाद लोग अपना व्यवसाय अपनी इच्छा से चुन सकते है और उनमें आत्मसम्मान की भावना का भी विकास हुआ।

राजनैतिक क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

लोग मुद्रा के रूप में सरकारों को कर देते है और सरकार को जो करों से प्राप्त आय होती है उसे सार्वजनिक व्यय के रूप में जनता के ऊपर खर्च किया जाता है। कर देने के कारण ही लोगों में राजनैतिक चेतना का विकास हुआ मुद्रा द्वारा ही सरकार देश के विकास के लिए कल्याणकारी योजनाएं शुरू कर सकती है।

कला के क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

मुद्रा द्वारा ही कला का मूल्यांकन करना संभव हो पाया है। प्रत्येक कल्याणकारी देश की सरकार मुद्रा के रूप में उस देश के कला प्रेमियों को प्रोत्साहन देती है ताकि वे अपनी कला को विकसित कर सके इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुद्रा के द्वारा ही कला का विकास संभव हो पाया है।

वस्तु विनियम प्रणाली:-

वस्तुओं के बदले वस्तुओं का लेन देने वस्तु विनिमय प्रणाली कहलाता है। 

वस्तु विनिमय प्रणाली की सीमाएँ:-

  • वस्तु विनिमय के लिए दोहरे संयोग की शर्त का पूरा होना आवश्यक। 
  • धन या मूल्य के संचयन में कठिनाई। 
  • अविभाज्य वस्तुओं का विनिमय कठिन। 
  • वस्तुओं को भविष्य में प्रयोग के लिए ( संग्रहित करना लम्बे समय तक ) कठिन। 
  • सेवाओं का मूल्य निर्धारण व विनिमय में कठिनाई।

आवश्यकताओं का दोहरा संयोग:-

जब एक व्यक्ति किसी चीज को बेचने की इच्छा रखता हो, वही वस्तु दुसरा व्यक्ति खरीदने की इच्छा रखता हो अर्थात् मुद्रा का उपयोग किये बिना तो उसे आवश्यकताओं का दोहरा सहयोग कहा जाता है।

मुद्रा के आधुनिक रूप:-

  • कागज के नोट
  • सिक्के

करेंसी:-

  1. यह सामान्यतः धन के रूप में स्वीकार की जाती है, जिसमें सिक्के और कागज के नोट शामिल हैं। इसे सरकार द्वारा जारी किया जाता है और अर्थव्यवस्था के अंदर परिचालित किया जाता है। 
  2. आधुनिक मुद्रा का विनिमय के अतिरिक्त कोई और अन्य उपयोग नहीं है। 

भारत में करेंसी:-

भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India) भारत सरकार की ओर से करेंसी नोट जारी करता है। विनिमय के माध्यम के रूप में रुपये को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है।

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के प्रमुख कार्य:-

  • सरकार की ओर से मुद्रा जारी करता है। 
  • बैंको व समितियों की कार्य प्रणाली पर नज़र रखता है। 
  • ब्याज की दरो एवं ऋण की शर्तों पर निगरानी रखता है। 
  • बैंक कितना नकद शेष अपने पास रखे हुए है। उसकी सूचना रखता है। 
  • ऋण किस प्रकार वितरित करना है, इसकी नजर रखता है।

बैंकों में निक्षेप (जमा):-

  • मुद्रा को एकत्रित या जमा करने का यह अन्य रूप है। 
  • लोग अपने नाम पर एक बैंक खाता खोलकर बैंकों में अपना अतिरिक्त पैसा जमा करते हैं।
  • बैंक जमा राशि स्वीकार करते हैं और इस पर ब्याज ( Interest ) भी देते हैं। 
  • बैंक में जमा किए गए धन को जमाकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार निकाल सकते हैं। 

माँग जमा:-

बैंक खातों में जमा धन को माँग के ज़रिए निकाला जा सकता है, इसलिए इस जमा को माँग जमा कहा जाता है।

चेक की सुविधा:-

  1. चेक एक ऐसा कागज है, जो बैंक को किसी व्यक्ति के खाते से चेक पर लिखे नाम के किसी दूसरे व्यक्ति को एक विशेष रकम का भुगतान करने का आदेश देता है।
  2. यह नकदी के प्रयोग के बिना भुगतानों को हल करता है।

आधुनिक बैंकिंग प्रणाली:-

मुद्रा और जमा का आधुनिक रूप आधुनिक बैंकिंग प्रणाली से जुड़ा हुआ है।

बैंकों की ऋण संबंधी क्रियाएँ:- 

  • बैंक लोगों की जमा राशि स्वीकार करते हैं और इस प्रकार बैंक जमा के रूप में बड़ी राशि एकत्र करते हैं। 
  • भारत में बैंक जमा का केवल 15% हिस्सा नकद ( Cash ) के रूप में अपने पास रखते हैं। ऐसा प्रावधान जमाकर्ताओं द्वारा किसी एक दिन में धन निकालने की संभावना को देखते हुए किया गया है। 
  • बैंक उधारकर्ताओं को अग्रिम ऋण देते हैं और इस पर उच्च ब्याज लेते हैं। 
  • कर्जदारों से लिए गए ब्याज और जमाकर्ताओं को दिए गए ब्याज के बीच का अंतर बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है।

साख:-

साख एक ऐसा समझौता है जिसके तहत ऋणदाता उधारकर्त्ता को धनराशि, वस्तु एवं सेवाएँ इस आश्वासन पर उधार देता है कि वह भविष्य में उसका भुगतान कर देगा।

साख संपत्ति के रूप में:-

  1. त्यौहारों के दौरान जूता निर्माता सलीम, को एक महीने के अंदर भारी मात्रा में जूता बनाने का आदेश मिलता है। इस उत्पादन को पूरा करने के लिए वह अतिरिक्त मजदूरों को काम पर ले आता है और उसे कच्चा माल खरीदना पड़ता है। 
  2. वह आपूर्तिकता को तत्काल चमड़ा उपलब्ध कराने के लिए कहता है और उसके बाद में भुगतान करने का आश्वासन देता है। उसके बाद वह व्यापारी से कुछ उधार लेता है। 
  3. महीने के अंत तक वह ओदश पूरा कर पाता है, अच्छा लाभ कमाता है और उसने जो भी उधार लिया होता है, उसका भुगतान कर देता है।

साख ऋणजाल के रूप में:-

एक किसान स्वप्ना कृषि के खर्च को वहन करने के लिए साहुकार से उधार लेती है। लेकिन दुर्भाग्य से फसल कीडों या किसी अन्य वजह से बर्बाद हो जाती है। ऐसे में वह ऋण का भुगतान नहीं कर पाती है और ऋण ब्याज के साथ बढ़ता जाता है।

सलीम व स्वप्ना दोनों के लिए ऋण की अलग परिस्थिति:-

  1. सलीम के लिए ऋण ने सकारात्मक भूमिका निभाई। उसने लाभ भी कमाया व ऋण भी चुकाया। 
  2. स्वप्ना के लिए ऋण की नकारात्मक भूमिका थी। वह ऋण चुकाने व लाभ कमाने में असमर्थ थी। वह कर्ज – जाल में फंस गई, उसे जमीन बेचनी पड़ी।

कर्ज – जाल उत्पन्न होने की परिस्थितियाँ:-

  • जब कर्जदार अपना पिछला ऋण चुकाने में असमर्थ होता है। 
  • पुराने कर्ज़ को चुकाने के लिए नया कर्ज ले लेता है। 
  • उसे ऋण अदायगी के लिए अपनी परिसम्पत्ति बेचनी पड़ जाती है। 
  • उसकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो जाती है।

ऋण की शर्तें:-

  1. ब्याज दर, समर्थक ऋणाधार, आवश्यक कागज़ात और भुगतान के तरीकों को सम्मिलित रूप से ऋण की शर्तें कहा जाता है।
  2. ऋण की शर्तें विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के लिए अलग अलग हो सकती हैं।

समर्थक ऋणाधार:-

  1. उधार दाता, उधार प्राप्तकर्ता से समर्थक ऋणाधार के रूप में ऐसी परिसम्पतियों की माँग करता है जिन्हें बेचकर वह अपनी ऋण राशि की वसूली कर सके। ये परिसम्पत्तियाँ ही समर्थक ऋणाधार कहलाती हैं। 
  2. उदाहरण:- कृषि भूमि, जेवर, मकान, पशुधन, बैंक जमा आदि।

विविध प्रकार की साख व्यवस्था:-

ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण की मुख्य माँग फसल उत्पादन के लिए होती है, जिसमें बीज, उर्वरक, कीटनाशक, पानी, बिजली, उपकरणों की मरम्मत आदि पर काफी खर्च होता है। एक गाँव में विभिन्न श्रेणियों के उधारकर्ताओं के लिए अलग – अलग साख या ऋण व्यवस्था हो सकती है ; जैसे:-

  1. साहूकारों से ऋण:- छोटे किसान गाँव के साहूकारों से ब्याज की उच्च दर पर पैसे उधार लेते हैं। उच्च ब्याज दर के कारण वे कर्ज- जाल में फँस जाते हैं। 
  2. व्यापारियों से ऋण:- किसानों को कम ब्याज दर पर कृषि व्यापारियों से ऋण मिलता है। व्यापारियों को भी किसानों से उनकी फसल को बेचने का वादा मिलता है। इस तरीके से व्यापारी सुनिश्चित करता है कि धन लाभ कमाने के अतिरिक्त अदा भी किया जाता है। वह कम कीमत पर किसानों से फसल खरीदता है और जब कीमतें उच्च होती हैं, तो उसे बेचता है।
  3. बैंकों से ऋण:- मध्यम और बड़े किसान बहुत कम ब्याज दर पर खेती के लिए बैंक से ऋण लेते हैं। बैंक ऐसे उधारकर्ताओं को अन्य सुविधाएँ भी प्रदान करते हैं।
  4. नियोक्ता से ऋण:- भूमिहीन कृषि मजदूर और अन्य मजदूर ऋण के लिए अपने नियोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। जमींदार प्रत्येक महीने 5 % की ब्याज दर पर मजदूरों को ऋण देते हैं और ऋण के बदले वे जमीन मालिकों के लिए काम करते हैं।
  5. सहकारी समितियों से ऋण:- यह ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते ऋण का प्रमुख स्रोत है। सहकारी समितियों के सदस्यों को कृषि उपकरण, खेती और कृषि व्यापार, मत्स्यपालन, घरों के निर्माण और अन्य खर्चों की खरीद के लिए ऋण प्रदान किया जाता है।

कुछ व्यक्तियों या समूहों को बैंक के द्वारा कर्ज नही देने के कारण:-

  • ग्रामीण क्षेत्रों मैं बैंको की अनुपस्थिति।
  • समर्थक ऋणाधार न होना। 
  • जरूरी कागजात न होना। 
  • ऋण की शर्तें पूरी न कर पाना।

भारत में औपचारिक क्षेत्रक में साख:-

भारत में ऋणों को दो वर्गों औपचारिक ( Formal ) एवं अनौपचारिक ( Informal ) ऋण क्षेत्रों में बाँटा गया है। 

  1. औपचारिक क्षेत्र में बैंक और सहकारी समितियाँ शामिल हैं। 
  2. अनौपचारिक क्षेत्र में मित्र, रिश्तेदार, व्यापारी, साहूकार, जमींदार, बड़े किसान आदि शामिल थे। 

साख के स्रोत:-

वर्ष 2012 में भारत में 1000 ग्रामीण परिवारों के साख के स्रोत इस प्रकार थे:-

  • व्यावसायिक बैंक 25% 
  • सहकारी समितियाँ / बैंक 25% 
  • अन्य औपचारिक स्रोत 5%
  • रिश्तेदार एवं मित्र 8% 
  • सरकारी 1% 
  • जमींदार 1%
  • साहूकार 33% 
  • अन्य अनौपचारिक स्रोत 2%

साख के औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्र की विशेषताएँ:-

  • औपचारिक क्षेत्र में ऋण की विशेषताएँ:-
  • यह अपेक्षाकृत कम दरों में ऋण प्रदान करता है तथा समर्थक ऋणाधार ऋण प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है। 
  • यह क्षेत्र मुख्यतः भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा पर्यवेक्षित होता है। 
  • इसमें बैंक और सहकारी समितियाँ शामिल हैं।
  • अनौपचारिक क्षेत्र में ऋण की विशेषताएँ:-
  • यह क्षेत्र अपने ऋणों पर उच्च ब्याज दरें लगाता है, क्योंकि इस क्षेत्र की निगरानी के लिए कोई संगठन नहीं है और इन अनौपचारिक क्षेत्रों से ऋण प्राप्त करने के लिए समर्थक ऋणाधार सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। 
  • यह उधारकर्ताओं के ऋण को बढ़ा सकता है और उन्हें कर्ज के जाल में फँसा सकता है अर्थात् इससे उन पर ऋण का बोझ अधिक हो सकता है। 
  • इसके अतिरिक्त जो लोग अनौपचारिक क्षेत्र से उधार लेकर उद्यम शुरू करना चाहते हैं, वे उधार की ब्याज दर ऊँची होने के कारण ऐसा नहीं कर पाते हैं। 
  • हालाँकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी गरीब परिवार अपनी उधार की जरूरतों के लिए औपचारिक और अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भर हैं, क्योंकि यहाँ उन्हें किसी भी प्रकार के समर्थक ऋणाधार की आवश्यकता नहीं होती है।

स्वंय सहायता समूह:-

स्वयं सहायता समूह आमतौर पर ऐसे लोगों का समूह होता है, जो समान सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि वाले होते हैं। वे एकत्रित होकर अपनी क्षमता के अनुसार नियमित रूप से पैसे बचाते हैं।

  • स्वयं सहायता समूह में एक – दूसरे के पड़ोसी 15-20 सदस्य होते हैं। 
  • सदस्य अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटे कर्ज समूह से ही कर्ज ले सकते हैं। 
  • समूह इन कर्जों पर ब्याज लेता है, लेकिन यह साहूकार द्वारा लिए जाने वाले ब्याज से कम होता है। 
  • एक या दो वर्षों के बाद यदि समूह नियमित रूप से बचत में है, तो वह बैंक से ऋण प्राप्त करने के योग्य हो जाता है।

गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूह संगठनों के पीछे मूल विचार:-

  • गरीबों को संगठित रूप में कार्य के लिए प्रेरित करना।
  • स्वरोज़गार के लिए प्रेरित करना। 
  • शोषण से बचाना। 
  • कर्जदारों को ऋण – जाल से बचाना। 
  • स्वावलंवन व रोजगार।

स्वंय सहायता समूह के कार्य:-

  • बिना समर्थक ऋणभार के ऋण देना।
  • सदस्यों की जमा पूंजी इकट्ठा करना।
  • ग्रामीण विर्धनो विशेषकर महिलाओं को एकत्रित करना।
  • कम ब्याज दर पर ऋण देना।
  • विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चर्चा को मंच देना।

Table of Contents