अध्याय-4
कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान राजनीति विज्ञान अध्याय-4
जाति धर्म और लैंगिक मसले
श्रम का लैंगिक विभाजन
काम के बंटवारे का वह तरीका जिसमें घर के अंदर सारे काम परिवार की औरतें करती है। श्रम का लैंगिक विभाजन कहलाता है।
श्रम के लैंगिक विभाजन :-
एक प्रणाली जिसमें घर के अंदर के सभी काम परिवार की महिलाओं के द्वारा किया जाता है, जबकि पुरुषों से उम्मीद की जाती है की वो पैसा कमाने के लिए घर से काम करें।
यह अवधारणा जैविक बनावट नही बल्कि सामाजिक अपेक्षाओं और रूढ़िवादों पर आधारित हैं।
नारीवादी
नारी और नर (महिला एवं पुरूषों) के लिए एक समान अधिकारों की मांग करना या नारी सशक्तिकरण की माँग।
नारीवादी आंदोलन
महिलाओं के राजीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने, उनके लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने की माँग और उनके व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में बराबरी की माँग करने वाले आंदोलन को नारीवादी आंदोलन कहते हैं।
लैंगिक असमानता के कारण
- साक्षरता दर :- जहां पुरुष 82% साक्षर है वहीं महिलायें 65% साक्षर है।
- नौकरियां :- उच्च पदों की नौकरियों में महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि कुछ लड़कियों को उच्च शिक्षा ग्रहण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
- मजदूरी :- समान मजदूरी अधिनियम लागू होने के बावजूद भी खेल, सिनेमा, कृषि और निर्माणा आदि कार्य क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है।
- लिंग अनुपात :- भारत में अनेक हिस्सो में माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है।
- प्रति हजार लड़को पर लड़कियों की संख्या।
- सामाजिक बुराई :- विशेष रूप से शहरी क्षेत्र महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। छेड़खानी, दहेज, यौन उत्पीड़न आम बात है।
- प्रतिनिधित्व :- भारत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा में 5 और लोकसभा है।
पितृ-प्रधान :- इसका इसका शाब्दिक अर्थ तो पिता का शासन है पर इस पद का प्रयोग महिलाओं की तुलना में पुरुषों को ज्यादा महत्व, ज्यादा शक्ति देने वाली व्यवस्था के लिए भी किया जाता है।
- हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है।
धर्म , सांप्रदायिक और राजनीति
धर्मनिरपेक्ष शासन :-
राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे।
- भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है।
>श्रीलंका में बौद्ध धर्म
>पाकिस्तान में इस्लाम
>इंग्लैंड में ईसाई धर्म
- भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
- संविधान सभी नागरिकों और समुदायों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने की आजादी देता है।
- संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी भी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।
नारीवादी आंदोलन की विशेषताएँ
- यह आंदोलन महिलाओं के राजनैतिक अधिकार और सत्ता पर उनकी पकड़ की वकालत करता है।
- इसमें महिलाओं को घर की चार – दीवारी के भीतर रखने और घर के सभी कामों का बोझ डालने का विरोध सम्मिलित है।
- यह पितृसत्तात्मक परिवार को मातृसत्तात्मक बनाने की ओर अग्रसर है।
- महिलाओं की शिक्षा तथा देश के विभिन्न क्षेत्रों में उनके व्यवसाय, सेवा आदि का समर्थक है।
- यह महिलाओं के हर प्रकार के शोषण का विरोध करता है।
पितृ प्रधान समाज
ऐसा समाज जिसमें परिवार का मुखिया पिता होता है और उन्हें औरतों की तुलना में अधिक अधिकार होता है।
महिलाओं का दमन
साक्षरता की दर – महिलाओं में साक्षरता की दर 54 प्रतिशत है जबकि पुरुषों में 76 प्रतिशत।
ऊँचा वेतन और ऊँची स्थिति के पद, इस क्षेत्र में पुरूष महिलाओं से बहुत आगे हैं।
असमान लिंग अनुपात – अभी भी प्रति 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 919 है।
घरेलु और सामाजिक उत्पीड़न।
जन प्रतिनिधि संस्थाओं में कम भागीदारी अथवा प्रतिनिधित्व।
महिलाओं में पुरूषों की तुलना में आर्थिक आत्मनिर्भरता कम।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
- भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है। जैसे, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पहली बार 2019 में ही 14.36 फ़ीसदी तक पहुँच सकी है।
- राज्यों की विधान सभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 फ़ीसदी से भी कम है। इस मामले में भारत का नंबर दुनिया के देशों में काफ़ी नीचे है।
विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार के लिए क्या किया जा सकता है?
- विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार के लिए, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण कानूनी रूप से पंचायतों की तरह बाध्यकारी होना चाहिए।
- पंचायत में 1/3 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। कुछ राज्य जहां महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें पहले से ही आरक्षित हैं, वे हैं बिहार, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश।
भारत सरकार के द्वारा नारी असमानता को दूर करने के लिए उठाए गए कदम
- दहेज को अवैध घोषित करना।
- पारिवारिक सम्पत्तियों में स्त्री पुरुष को बराबर हक।
- कन्या भ्रूण हत्या को कानूनन अपराध घोषित करना।
- समान कार्य के लिए समान पारिश्रमिक का प्रावधान |
- नारी शिक्षा पर विशेष जोर देना।
- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं जैसी योजना।
धर्म को राजनीति से कभी अलग नहीं किया जा सकता। महात्मा गाँधी ने ऐसा क्यों कहा?
गांधी जी के अनुसार धर्म, हिंदू धर्म या इस्लाम जैसे किसी भी धर्म विशेष –, से संबंधित नहीं था, लेकिन नैतिक मूल्य जो सभी धर्मों को सूचित करते हैं। राजनीति को धर्म से लिए गए नैतिक मूल्यों द्वारा निर्देशित होना चाहिए।
पारिवारिक कानून
विवाह, तलाक, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे परिवार से जुड़े मसलों से संबंधित कानून।
साम्प्रदायिकता
साम्प्रदायिकता एक शब्द है जिसका उपयोग दक्षिण एशिया में धार्मिक या जातीय पहचान के निर्माण के प्रयासों को निरूपित करने के लिए किया गया है, जो विभिन्न समुदायों के रूप में पहचाने गए लोगों के बीच संघर्ष और उन समूहों के बीच सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने के लिए उकसाता है।
सांप्रदायिक राजनीति
सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है।
- सांप्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है।
- एक समुदाय या धर्म के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय या धर्म के विरुद्ध किये गए शत्रुभाव को सांप्रदायकिता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है।
यह एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक हितों की पूर्ति की जाती है और जिसमें सांप्रदायिक विचारधारा के विशेष परिणाम के रूप में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ होती हैं।
- सांप्रदायिकता में नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पक्ष विद्यमान होते हैं।
- सकारात्मक पक्ष, किसी व्यक्ति द्वारा अपने समुदाय के उत्थान के लिये किये गए सामाजिक और आर्थिक प्रयासों को शामिल करता है।
वहीं दूसरी तरफ इसके
- नकारात्मक पक्ष को एक विचारधारा के रूप में देखा जाता है जो अन्य समूहों से अलग एक धार्मिक पहचान पर ज़ोर देता है, जिसमें दूसरे समूहों के हितों को नज़रअंदाज़ कर पहले अपने स्वयं के हितों की पूर्ति करने की प्रवृत्ति देखी जाती है।
भारतीय संदर्भ में सांप्रदायिकता का विकास
- भारत में सांप्रदायिकता के वर्तमान स्वरूप की जड़ें अंग्रेजों के आगमन के साथ ही भारतीय समाज में स्थापित हुई। यह उपनिवेशवाद का प्रभाव तथा इसके खिलाफ उत्पन्न संघर्ष की आवश्यकता का प्रतिफल थीं।
- वर्ष 1947 में भारत का विभाजन हुआ । हालाँकि यह विभाजन स्वतंत्रता के बाद हुआ परंतु इसका आधार तैयार करने में जहाँ सामाजिक, राजनीतिक कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी थे तो वहीं सांप्रदायिक कारण भी समानांतर विद्यमान थे।
साम्प्रदायिक राजनीति के विभिन्न रूप
- कट्टर पंथी विचारधारा वाले लोग।
- धार्मिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण।
- धर्म के आधार पर लोगों को चुनाव में प्रत्याशी घोषित करना।
- साम्प्रदायिक हिंसा और खून खराबा।
- साम्प्रदायिक दिशा में राजनीति की गतिशीलता।
- साम्प्रदायिकता के आधार पर राजनीतिक दलों का अलग – अलग खेमों में बँट जाना। जैसे – आयरलैंड में नेशलिस्ट और यूनियनिस्ट पार्टी।
साम्प्रदायिकता को दूर करने की विधियाँ
- शिक्षा द्वारा :- शिक्षा के पाठ्यक्रम में सभी धर्मों की अच्छा है बताया जाए और विद्यार्थियों को सहिष्णुता एवं सभी धर्मों के प्रति आदर भाव सिखाया जाए।
- प्रचार द्वारा :- समाचार – पत्र रेडियो टेलीविजन आदि से जनता को धार्मिक सहिष्णुता की शिक्षा दी जाए।
धर्मनिरपेक्षता
ऐसी व्यवस्था जिसमें राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता। सभी धर्मों को एक समान महत्व दिया जाता है तथा नागरिकों को किसी भी धर्म को अपनाने की आजादी होती है।
धर्मनिरपेक्ष शासन
- भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
- किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने की आजादी।
- धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित।
- शासन को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार।
- संविधान में किसी भी तरह के जातिगत भेदभाव का निषेध किया गया है।
भारत को एक धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने वाले विभिन्न प्रावधान
भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है।
भारत में सभी धर्मों को एक समान महत्व दिया गया है।
प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता है।
भारतीय संविधान धार्मिक भेदभाव को असंवैधानिक घोषित करता है।
जातिवाद
जाति के आधार पर लोगों में भेदभाव करना।
वर्ण व्यवस्था
विभिन्न जातीय समूहों का समाज में पदानुक्रम।
आधुनिक भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था के कारण हुए परिवर्तन
- आर्थिक विकास
- बड़े पैमाने पर शहरीकरण
- साक्षरता और शिक्षा का विकास
- व्यावसायिक गतिशीलता
- गांव में जमींदारों की स्थिति का कमजोर होना।
जाति के अंदर राजनीति:-
- देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है इसलिए हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति और एक समुदाय से ज्यादा लोगों का भरोसा हासिल करना पड़ता है।
- कोई भी पार्टी किसी एक जाति या समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकती जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का ‘वोट बैंक’ कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि उस जाति के ज्यादातर लोग उस पार्टी को वोट देते हैं।
- अगर किसी चुनाव क्षेत्र में एक जाति के लोगों का प्रभुत्व माना जा रहा हो तो अनेक पार्टियों को उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा करने से कोई रोक नहीं सकता ऐसे में कुछ मतदाताओं के सामने उसकी जाति के एक से ज्यादा उम्मीदवार होते हैं तो किसी-किसी जाति के मतदाताओं के सामने उनकी जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं होता।
- हमारे देश में सत्तारूढ़ दल वर्तमान सांसदों और विधायकों को अक्सर हार का या समुदायों को साथ लेने की कोशिश करती है और इस तरह उनके बीच संवाद और मेल-तोल होता है।
- राजनीति में नए किस्म के जातिगत गोलबंदी भी हुई है जैसे आंगड़ा और पिछड़ा जाति।
2011 के अनुसार भारत में धार्मिक समुदाय की आबादी।
- हिन्दू धर्म -79.8%
- इस्लाम धर्म -14.2%
- ईसाई धर्म – 2.3%
- सिख धर्म -1.7%
- बौद्ध धर्म -0.7%
- जैन धर्म – 0.4%
- अन्य धर्म – 0.7%
- कोई धर्म नही – 0.2%
राजनीति में जाति
चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखना।
समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाना।
देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है।
कोई भी पार्टी किसी एक जाति या समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकती।
राजनीति में जाति:-
- अनुसूचित जाति 16.6%
- अनुसूचित जनजाति 8.6%
- अन्य पिछड़ा वर्ग 41.0%
- भारतीय मुसलमान 14.2%
ईसाई 2.3%अक्सर जातियों के रूप में कार्य करते हैं।
- जब पार्टियाँ चुनाव के लिए उम्मीदवारों का नाम तय करती है तो चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं का जातियों का हिसाब ध्यान में रखती है ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट मिल जाए।
- जब सरकार का गठन किया जाता है तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों और क़बीलों के लोगों को उचित जगह दी जाए
- राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
- सार्व भौम व्यस्क मताधिकार और एक-व्यक्ति वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने वाले और लोगों को गोलबंद करने के लिए सक्रिय हो। इससे उन जातियों के लोगों में नयी चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और नीच माना जाता था।
- राजनीति में जाति पर जोर देने के कारण कई बार धारणा बन सकती है कि चुनाव जातियों का खेल है कुछ ।
जाति और राजनीति :-
राजनीति में जातिवाद का अर्थ है जाति का राजनीतिकरण है।
राजनीति जाति व्यवस्था और जाति की पहचान को कैसे प्रभावित करती है?
- प्रत्येक जाति समूह पड़ोसी जातियों या उप – जातियों को अपने भीतर समाहित करके बड़ा बनने का प्रयास करता है, जिन्हें पहले इससे बाहर रखा गया था।
- अन्य जातियों के साथ गठबंधन में प्रवेश करने के लिए जाति समूह की आवश्यकता होती है।
- राजनीतिक क्षेत्र में नए तरह के जातियों के समूह जैसे पिछड़े और अगड़े जाति समूह आ गए हैं।
जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं किये जा सकते (कारण)
- मतदाताओं में जागरूकता – कई बार मतदाता जातीय भावना से ऊपर उठकर मतदान करते हैं।
- मतदाताओं द्वारा अपने आर्थिक हितों और राजनीतिक दलों को प्राथमिकता।
- किसी एक संसदीय क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत न होना।
- मतदाताओं द्वारा विभिन्न आधारों पर मतदान करना।
जाति पर विशेष ध्यान देने से राजनीति में नकारात्मक परिणाम
- यह गरीबी, विकास और भष्टाचार जैसे अन्य महत्व के मुद्दों से ध्यान हटा सकता है।
- जातीय विभाजन से तनाव, संघर्ष और यहां तक कि हिंसा भी होती है।
जातिगत असामनता
जाति के आधार पर आर्थिक विषमता अभी भी देखने को मिलती है। ऊँची जाति के लोग सामन्यतया संपन्न होते है। पिछड़ी जाति के लोग बीच में आते हैं, और दलित तथा आदिवासी सबसे नीचे आते हैं। सबसे निम्न जातियों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है।
लिंग और धर्म पर आधारित विभाजन तो दुनिया भर में है पर जाति पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत समाज में देखने को मिलता है।
- जाति व्यवस्था एक अतिवादी और स्थायी रूप है।
- इसका पैशा के वंशानुगत विभाजन को रीति-रिवाजों को मान्यता प्राप्त है।
- उन्हें एक अलग सामाजिक समुदाय के रूप में देखा जाता है।
अनुसूचित जातियाँ
वे जातियाँ जो हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में उच्च जातियों से अलग और अछूत मानी जाती हैं तथा जिनका अपेक्षित विकास नहीं हुआ है। अनुसूचित जातियों का प्रतिशत 16.2 प्रतिशत है।
अनुसूचित जनजातियाँ
ऐसा समुदाय जो साधारणतया पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में रहते हैं और जिनका बाकी समाज से अधिक मेलजोल नहीं है। साथ ही उनका विकास नहीं हुआ है। अनुसूचित जनजातियों का प्रतिशत 8.2 प्रतिशत है।
भारत में किस तरह अभी भी जातिगत असमानताएँ जारी है
- आज भी हमारे देश में कुछ जातियों के साथ अछूतों जैसा बर्ताव किया जाता है।
- आज भी अधिकतर लोग अपनी जाति या कबीले में विवाह करते हैं।
- कुछ जातियाँ अधिक उन्नत हैं तो कुछ खास जातियाँ अत्यधिक पिछड़ी हुई।
- कुछ जातियों का अभी भी शोषण हो रहा है।
- चुनाव अथवा मंत्रिमंडल के गठन में जातीय समीकरण को ध्यान में रखना।
समाज का काम के आधार विभाजन :-
ब्राह्मण :- वेदों का अध्ययन-अध्यापन और यज्ञ करना
- क्षत्रिय :- युद्ध करना और लोगों की रक्षा करना
3.वैश्य :-कृषक , पशुपालक , और व्यापारी
- शूद्र :- तीनों वर्णों की सेवा करना
गुण, कर्म अथवा व्यवसाय पर आधारित समाज का चार मुख्य वर्णों मे विभाजन
वर्ण-व्यवस्था :- अन्य जाति समूहों से भेदभाव और उन्हें अपने से अलग मानने की धारणा पर आधारित है।
- जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता है।
- ज्योतिबा फुले, डॉ. अंबेडकर, पेरियार रामास्वामी, जैसे राजनेताओं और समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव से मुक्त समाज व्यवस्था बनाने की बात की और उसके लिए काम किया।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या का क्रमश :-
- अनुसूचित जाति 16.6%
- अनुसूचित जनजाति 8.6%
- संविधान पहली अनुसूची में 22 राज्यों में 744 जनजातियों को सूचीबद्ध करता है
- भारत की स्वतंत्रता के बाद से, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण का दर्जा दिया गया , राजनीतिक प्रतिनिधित्व की गारंटी दी गई।