अध्याय-1

कक्षा 12 Commerce व्यवसाय अध्ययन अध्याय-1

प्रबंध की प्रकृति एवं महत्त्व

प्रबन्ध

प्रबन्ध एक एैसी रणनीति है, जिसके सुव्यवस्थित क्रियान्यवयन से विकासशील होने की अवधारणा को विकसित अवधारणा में परिवर्तित किया जा सकता है। भारत में प्रबन्ध को कला एवं विज्ञान दोनो ही दृष्टिकोणों से मान्यता दी जाती है। ऐसी मान्यता है कि प्रबन्ध प्रशासन के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये आवश्यक कारकों में अनुकूल समन्वय स्थापित करता है, जिससे कार्य निष्पादन उचित परिणाम दे सकें। प्रस्तुत इकाई प्रबन्ध की इस आवधारणा को विस्तार से प्रस्तुत करेगी, साथ ही सहभागी प्रबन्ध एवं सुव्यवस्थित प्रबन्ध की विभिन्न कसौटियों को भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेगी।

प्रबंधन एक नया विषय है। विकसित और विकासशील राष्ट्रों को प्रबन्धन एक नया आयाम दिया है । औद्योगिक क्रान्ति के बाद प्रबन्धकीय महत्व बहुत बढा है। किन्तु औपचारिक अध्ययन की दृष्टि से प्रबन्धन का क्षेत्र नया ही है। संकीण अर्थ में प्रबन्धन का आशय अन्य लोंगों से कार्य करवाने की कला से है।

विस्तृत अर्थों में प्रबन्धन, निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय व्यवहार एवं क्रियाओं का निर्देशन करने से है। दुसरे अर्थों में किसी संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सामूहिक प्रयासों के नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्देशन एवं नियंत्रण की प्रक्रिया को प्रबन्धन कहा जाता है।

प्रबन्ध का अर्थ – प्रबन्ध से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें लोग समूह में कार्य करते है तथा निर्धारित लक्ष्यों को कुशलता से प्राप्त करते है|

प्रभावपूर्णता – प्रभावपूर्णता का अर्थ कार्य को समय पर पूरा करने से है|

कुशलता – कुशलता का अर्थ कार्य को न्यूनतम लागत पर पूरा करने से है|

प्रबन्ध की विशेषताएं

  1. उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया – किसी भी संगठन के कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य होते है| प्रबन्ध इन्ही लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है, यह निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है|
  2. सर्वयापी – प्रबन्ध सर्वयापी है अर्थात् संगठन के प्रत्येक स्तर पर और सभी प्रकार के संगठनों के लिए आवश्यक है| चाहे सामाजिक हो या राजनेतिक|
  3. बहुआयामी प्रक्रिया – प्रबन्ध एक जटिल एंव बहुआयामी प्रक्रिया है इसमें कार्य का प्रबन्ध, लोगो का प्रबन्ध तथा परिचालन का प्रबन्ध शामिल है| प्रबन्ध इन्ही कार्यो को करवाने की कला है|
  4. निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है – प्रबन्ध एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है यह संगठन में जीवन भर चलती रहती है| संगठन में नियोजन, नियुक्तिकरण, निर्देशन आदि की आवश्यकता सदेव रहती है|
  5. सामूहिक प्रक्रिया – प्रबन्ध एक सामूहिक प्रक्रिया है क्योंकि इसमें सभी व्यक्ति सामूहिक रूप से मिलकर निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करते है|
  6. गत्यात्मक कार्य – प्रबन्ध एक गत्यात्मक कार्य है| अर्थात यह बदलते हुए वातावरण के साथ बदलता रहता है| किसी भी संगठन के बाहरी तथा आंतरिक पर्यावरण हमेशा बदलते रहते है तथा संगठन के उद्देश्यों को भी इसके अनुरूप बदलना होता है|

प्रबन्ध एक अमूर्त शक्ति है – प्रबन्ध एक अमूर्त शक्ति है क्योंकि इसे देखा नहीं जा सकता है| इसकी उपस्थिति का केवल अनुभव किया जा सकता है|

प्रबंध के उद्देश्य

  1. संगठात्मक उद्देश्य – इसका अभिप्राय संगठन में उपलब्ध मानव संसाधन और भौतिक संसाधन का उचित प्रयोग कर लाभ अधितकम करने से है|
  • जीवित रहना – किसी भी संगठन का सबसे बड़ा उद्देश्य जीवित रहना है, किसी भी व्यवसाय को जीवित रहने के लिए सकारात्मक एंव व्यवसाय के हित में निर्णय लेने चाहिए ताकि वह अधिक से अधिक धन कमा सके और लागतो को पूरा कर सके|
  • लाभ अर्जित करना – किसी भी संगठन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य लाभ अर्जित करना है क्योंकि कोई भी व्यवसाय लाभ के उद्देश्य से ही किए जाते है| लाभ संगठन को अच्छे से चलाने तथा लागत एंव जोखिमो को पूरा करने के लिए आवश्यक है|
  • वृद्धि एंव विस्तार – दीर्घकाल में किसी भी व्यवसाय के लिए विकास करना अति आवश्यक है| यह व्यवसाय की बाजार में अच्छी प्रतिष्ठा का सूचक है| इसे बिक्री, कर्मचारियों की संख्या, पूंजी निवेश के रूप में मापा जा सकता है| जैसे यदि किसी संगठन की बिक्री, कर्मचारियों की संख्या या पूंजी निवेश में वृद्धि होती है तो यह इसके विकास का प्रतिक है|
  1. सामाजिक उद्देश्य – इससे अभिप्राय सामाजिक हित को ध्यान रखने से है| कोई भी व्यवसाय समाज का अभिन्न अंग होता है इसकी स्थापना इसी समाज में होती है तथा इसका ग्राहक भी यही समाज होता है| अतः समाज के प्रति हर व्यवसाय के कुछ न कुछ दायित्व होते है| 
  • कम कीमत पर गुणवत्ता वाली वस्तुएं उपलब्ध कराना|
  • पर्यावरण को बिना नुक्सान पहुंचाए उत्पादन करना|
  • रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना|
  • करो का ईमानदारी से और समय पर भुगतान करना|
  • मानवीय आवश्कताओं की पूर्ति करना तथा जीवन स्तर में सुधार करना|
  1. व्यक्तिगत उद्देश्य – इससे अभिप्राय कर्मचारियों के हितों को ध्यान रखने से है| ये उद्देश्य कर्मचारियों से सम्बंधित होते है| कर्मचारी किसी भी संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते है तथा हर व्यवसाय का इनके प्रति कुछ उतरदायित्व होते है जिसे संगठन को पूरा करना उसका नैतिक कर्तव्य है| जैसे –
  • कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक
  • कर्मचारियों की व्यक्तिगत वृद्धि
  • कार्य करने का अच्छा वातावरण
  • स्वस्थ सम्बंधित सुविधाएँ प्रदान कर

प्रबन्ध का महत्व

  • सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति – प्रबन्ध कर्मचारियों में टीम भावना तथा समन्वय का विकास करने में सहायता करता है ताकि संगठन के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके|
  1. कार्यक्षमता में वृद्धि – प्रबन्ध कर्मचारियों की कार्य करने की क्षमता, योग्यता तथा कुशलता में वृद्धि करता है| इससे संसाधनों का उचित प्रयोग होता है और संसाधनों की बर्बादी कम होती है| जिससे लागत कम आती है|
  2. प्रबन्ध गतिशील संगठन का निर्माण करता है – प्रत्येक संगठन का प्रबंधन बदलते वातावरण के अनुसार करना होता है| प्रबन्ध इन्ही परिवर्तनों को पता लगाकर जोखिम, टकराव, चुनौतियों से बचने में संगठन की सहायता करता है|  
  3. व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति – प्रबन्ध व्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है| यह कर्मचारियों को प्रोत्साहित कर व्यवसाय के व्यक्तिगत उद्देश्यों तथा संगठात्मक उद्देश्यों में तालमेल बैठता है|
  4. समाज के विकास में सहायक – प्रबंध समाज के विकास में सहायता करता है| यह अच्छी गुणवता वाली वस्तुएं, सेवाएँ, रोजगार के अवसर प्रदान कर समाज के विकास में सहायता करता है|

प्रबन्ध की प्रकृति

  1. प्रबन्ध कला के रूप में – प्रबंध की कला के रूप में विशेषताएं निम्न है –
  • सैध्दान्तिक ज्ञान – कला हमेशा सैध्दान्तिक ज्ञान पर आधारित होता है | अतः प्रबन्ध कला है क्योंकि कला की ही तरह प्रबंध के विभिन्न क्षेत्रो में साहित्य तथा अध्ययन सामग्री उपलब्ध है |
  • व्यक्तिगत प्रयोग – सभी लोग अलग – अलग प्रकार से काम करते है क्योंकि सभी के काम करने का तरीका अलग – अलग होता है | इसलिए कला एक व्यक्तिगत अवधारणा है तथा प्रबन्ध भी |
  • अभ्यास एवं सृजनशीलता – कला अभ्यास तथा सृजनशीलता पर आधारित होते है | किसी भी व्यक्ति की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है की उसने कितना अभ्यास किया है | जिस प्रकार कला को अभ्यास तथा अनुभव द्वारा सुधरा जा सकता है इसी प्रकार प्रबन्ध को भी अभ्यास तथा अनुभव द्वारा सुधारा जा सकता है |
  1. प्रबन्ध विज्ञानं के रूप में – प्रबंध की विज्ञान के रूप में विशेषताएं निम्न है –
  • व्यवस्थित ज्ञान समूह – प्रबन्ध का विज्ञान की तरह ही व्यवस्थित ज्ञान समूह है | इनके सिधांत कारण तथा परिणाम के बीच सम्बंध प्रकट करते है जो सिधान्तो, अभ्यासों तथा प्रयोगों पर आधारित होते है |
  • प्रशिक्षण पर आधारित सिधांत – वैज्ञानिक सिधांत कई वर्षो क शोध, परीक्षण, प्रयोग तथा अवलोकन के बाद प्राप्त होते है उसी तरह प्रबन्ध के सिधांत भी प्राप्त होते है | अतः विज्ञान की तरह ही प्रबन्ध में भी प्रशिक्षण पर आधारित सिधांत है |
  • व्यापक वैधता – वैज्ञानिक सिधांत सत्य पर आधारित होते है तथा सभी लोगो द्वारा स्वीकृत होते है इसी प्रकार प्रबन्ध के सिधांत भी सत्य पर आधारित होते है | इसलिए ये व्यापक रूप से वैध्य होते है |
  1. पेशे के रूप में – प्रबंध की पेशे के रूप में विशेषताएं निम्न है –
  • भलीभांति परिभाषित ज्ञान समूह – सभी पेशे भलीभांति परिभाषित ज्ञान समूह पर आधारित होते है | क्योंकि अलग – अलग पेशे के लिए अलग ज्ञान तथा अलग शिक्षा होती है जिसे काफी लम्बे समय की पढाई के बाद प्राप्त किया जाता है |
  • प्रतिबंधित प्रवेश – पेशे में हर कोई आसानी से प्रवेश नहीं ले सकता है क्योंकि इसमें प्रवेश प्रतिबंधित होता है केवल परीक्षा या शैक्षणिक योग्यता द्वारा ही प्रवेश संभव है |
  • सेवा उद्देश्य – प्रबन्ध की तरह ही पेशे का मुख्य उद्देश्य सेवा उद्देश्य होता है क्योंकि इसमें ग्राहकों को सेवाएँ प्रदान की जाती है |
  • नैतिक आचार संहिता – सभी पेशे की अपनी एक अलग नैतिक आचार संहिता होती है जिसका पालन हर पेशेवर को अवश्य करना होता है |

प्रबंध का स्तर

  1. उच्चस्तरीय प्रबन्ध – यह संगठन के सबसे बड़े अधिकारी होते है | इन्हें आमतौर पर चेयरमैन,मुख्य अधिकारी, प्रधान, उपप्रधान आदि के नाम से पुकारा जाता है | इनके कार्य निम्न है|
  • विभिन्न विभागों के बीच एकता और सामंजस्य स्थापित करना |
  • उद्देश्य निर्धारित करना |
  • व्यवसायिक नीतिया तैयार करना |
  • व्यवसायिक पर्यावरण तथा उनके प्रभावों का विश्लेषण करना |
  • संगठन को चलाने के लिए वित(धन) की व्यवस्था करना |
  • संसाधन जुटाना |
  1. मध्यस्तरीय प्रबन्ध – मध्यस्तरीय प्रबंधक को आमतौर पर विभाग प्रमुख, परिचालन प्रबंधक आदि के नाम से जाना जाता है | ये  उच्च प्रबन्धन के अधीन काम करते है | इनके कार्य निम्न है –

यह उच्चस्तरीय प्रबंधक तथा निम्नस्तरीय प्रबंधक के बीच कड़ी का कार्य करते है |

उच्चस्तरीय प्रबन्ध द्वारा बनाई गई योजनाओं को लागू करना |

कर्मचारियों को उनका कार्य और दायित्व सौपना |

यह देखना की उनके विभाग में पर्याप्त संख्या में कर्मचारी है या नहीं |

कर्मचारियों को प्रेरित करना |

सम्बंधित विभागों का मार्गदर्शन या नेतृत्व करना |

  1. निम्नस्तरीय या परिचालन प्रबन्ध – निम्नस्तरीय प्रबंध में फोरमैन, निरीक्षक और पर्यवेक्षक आते है | ये उच्च तथा निम्न प्रबंधक के दिशानिर्देश के अनुसार काम करते है | इनके कार्य निम्न है –
  • कर्मचारियों को चुनना |
  • मध्यस्तरीय प्रबंधको के दिशानिर्देशो को कर्मचारियों तक पहुँचाना |
  • कर्मचारियों में अनुशासन बनाना |
  • कर्मचारियों को सुझाव देना तथा उनकी समस्याओं को हल करना |
  • कर्मचारियों को अच्छा काम करने का वातावरण प्रदान करना |
  • काम करने के लिए जरूरी उपकरणों की व्यवस्था करना |

प्रबंध के कार्य

  1. नियोजन – प्रबंध का सबसे पहला कार्य नियोजन है अर्थात क्या करना है, कैसे करना है, कौन सा काम किसके द्वारा किया जाना है इसका निर्णय पहले करना प्रबंध का पहला कार्य है 
  2. संगठन – नियोजन के बाद प्रबंध का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कार्यो को पहचान कर उनको बाँटना है, कर्तव्यो का निर्धारण करना तथा यह निर्धारित करना की कौन किससे आदेश लेगा और किसके प्रति जवाबदेह होगा |
  3. नियुक्तिकरण – प्रबंध का अगला कार्य नियुक्तिकरण है अर्थात खाली पदों पर योग्य कर्मचारियों की भर्ती करना, उन्हें प्रशिक्षण आदि देना है |
  4. निर्देशन – नियुक्तिकरण के बाद प्रबंध का अगला कार्य निर्देशन अर्थात कर्मचारियों का मार्गदर्शन करना तथा उन्हें काम करने के लिए प्रेरित करना है |
  5. नियंत्रण – प्रबंध का अंतिम कार्य नियंत्रण है जिसका अर्थ है वास्तविक निष्पादन (present performance) को नियोजित निष्पादन (planed performance) से तुलना करना, कमियों और कारणों का पता लगा कर सुधारात्मक कार्यवाही करना है|

समन्वय

समन्वय से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा एक संगठन में की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं के बीच तालमेल स्थापित किया जाता है | ताकि संगठन के उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सके |

समन्वय की प्रकृति एंव विशेषताएं –

  1. समन्वय सामूहिक प्रयासों में तालमेल बैठता है – समन्वय विभिन्न क्रियाओं को एक साथ लेकर चलने में सहायता करता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके |
  2. प्रयासों की एकात्मकता को सुनिश्चित करता है – समन्वय व्यक्तियों के प्रयासों में एकता लाकर विभिन्न विभागों को जोड़ने कार्य करता है |
  3. निरन्तर प्रक्रिया – समन्वय एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है तथा सभी क्रियाओ में हमेशा  एकता और संतुलन बनाये रखने के लिए समन्वय आवश्यक है |
  4. सभी प्रबंधको का उतरदायित्व है – समन्वय की जरुरत उच्च, निम्न तथा मध्यम तीनो प्रबंधकीय स्तरों पर होती है | अतः यह सभी का उतरदायित्व है की प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर समन्वय स्थापित हो |
  5. समन्वय सर्वव्यापी है – समन्वय सर्वव्यापी है क्योंकि इसकी आवश्यकता प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर होती है | 

समन्वय प्रबंध का सार

समन्वय प्रबन्ध का ही एक हिस्सा है | समन्वय प्रबन्ध के कार्यो का ही एक भाग है अर्थात जब एक प्रबंधक प्रबंध के कार्यो नियोजन, संगठन, निर्देशन आदि कार्य कर रहा होता है उस वक्त भी वह इन कार्यो के बीच समन्वय स्थापित कर रहा होता है |

  1. समन्वय तथा नियोजन – प्रबंधक जब नियोजन करता है उस वक्त भी उसका मुख्य केंद्र बिंदु समन्वय होता है तथा वह सभी विभागों को ध्यान में रख कर नियोजन करता है |
  2. समन्वय तथा संगठन – प्रबंधक जब संगठन कार्य कर रहा होता है उस वक्त भी उसका मुख्य केंद्र बिंदु समन्वय होता है वह उस वक्त विभिन्न विभागों के बीच संजस्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा होता है |
  3. समन्वय तथा नियुक्तिकरण – प्रबंधक का प्रयास यह रहता है की सभी पदों पर योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों को भरा जाए | अर्थात नियुक्तिकरण प्रक्रिया के दौरान भी प्रबंधक का ध्यान समन्वय पर होता है |
  4. समन्वय तथा निर्देशन – प्रबंधक निर्देशन प्रक्रिया के दौरान अभिप्रेरणा, पर्यवेक्षण तथा नेतृत्व में सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करता है |
  5. समन्वय तथा नियंत्रण – नियंत्रण प्रक्रिया के दौरान प्रबंधक संगठन के उद्देश्यों, उपलब्ध साधनों तथा मानवीय प्रयासों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है |

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