अध्याय 13

कक्षा 12 Science जीव विज्ञान अध्याय 13

जीव और समष्टियाँ

जीव और इसका पर्यावरण

जगत के समस्त प्राणियों में मानव सबसे ज्यादा प्रज्ञ और चिन्तनशील प्राणी है। आदिकाल में आद्यावधि वह अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रगति पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर है। कभी बादल की गरज और बिजली की चमक को ईश्वरीय प्रकोप समझकर डर जाने वाला, नंग-धड़ंग, खाना-बदोश मानव एक ओर आज बिना पंख के उड़ रहा है, घर बैठे देश-विदेश की खबरें ले रहा है, चाँद के बाद मंगल पर उतर चुका है। वहीं दूसरी ओर सुख-सुविधाओं के चक्कर में वह कुछ ऐसी गलतियाँ भी करता जा रहा है, जो उसके स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण भू-जीवन के लिये अभिशाप बनती जा रही हैं। मानव द्वारा की जाने वाली उन गलतियों में सबसे बड़ी गलती है- पर्यावरण को प्रदूषित किया जाना है, जिसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

जीव और समष्टियाँ

इसमें दो राय नहीं कि जब तक हमारा पर्यावरण स्वच्छ नहीं होगा तब तक सर्वांगीण विकास की बात बेमानी होगी। जीवन का उद्देश्य अत्यधिक धन नहीं अत्यधिक सुख और शांति प्राप्त करना है। धन के द्वारा न तो सुख-शांति खरीदी जा सकती है और न ही निर्भय-नैरोग्य जीवन। ‘स्वास्थ्य ही जीवन है’ के सिद्धांत पर संकल्प पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। अच्छे स्वास्थ्य का निर्माण अच्छे वातावरण में ही सम्भव है जिसे हम पर्यावरण कहते हैं।

पर्यावरण वह आवरण है जिसमें हम सभी धरती के प्राणी रहते हैं। हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु एवं दृश्य-अदृश्य जीवन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं। पर्यावरण के संकुचित अर्थ में जल, ताप, वायु, पेड़, पौधे आदि आते हैं, किन्तु विस्तृत अर्थों में इसके अतिरिक्त हमारे आचार-विचार एवं कर्म-व्यवहार भी समाहित हैं। यदि ऐसा न होता तो आज वैज्ञानिकों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की मुरली की मधुर आवाज वातावरण (अनंत) में नहीं ढूंढी जाती।

प्रदूषण का अर्थ जल, वायु, पृथ्वी आदि में भौतिक-अभौतिक एवं जैविकीय गुणों में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन से हैं। जीवन का निर्माण पाँच प्रमुख तत्वों के योग से होता है-

क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा।

पंच रचित यह अधम शरीरा।

अजैविक कारक

अजैविक कारक को 2 भागों में विभाजित करा गया है: भौतिक कारक और रासायनिक कारक।

भौतिक कारक

भौतिक कारक वे कारक हैं जो अपने भौतिक गुणों द्वारा जीवों को प्रभावित करते हैं। इसके दो प्रकार हैं।

  1. ताप कारक
  2. प्रकाश कारक

ताप कारक

जीव और समष्टियाँ

वस्तु की गर्मी को उसका ताप कहते हैं। इस प्रकार जो वस्तु जितनी अधिक गर्म होगी उसका ताप उतना ही अधिक होगा। पृथ्वी के दो तिहाई भाग में जल तथा एक तिहाई भाग में भूमि है। सूर्य की किरणों से पृथ्वी को ऊष्मा मिलती है जिससे पृथ्वी का जल भाग धीरे-धीरे तथा स्थल भाग शीघ्रता से गर्म होता है। रात्रि में जब जल और स्थल दोनों ठंडे हो जाते हैं तो विकिरण द्वारा ऊष्मा पुनः वातावरण में लौट जाती है। प्रत्येक समय तापमान समान नहीं रहता। ताप जीव-जंतुओं और वनस्पतिओं दोनों को प्रभावित करता है। ताप को सहन करने की क्षमता सभी जीवों में समान नहीं होती। अधिकतर जीवों में 0° सेल्सियस से कम तथा 50° सेल्सियस से अधिक ताप सहन करने की क्षमता नहीं होती। यदि तापमान 50° से ऊपर हो जाए तो जीवों की अनेक जातियां विलुप्त हो जाएंगी।

प्रकाश कारक

सूर्य की विकिरण ऊर्जा का वह भाग जो दृश्य स्पेक्ट्रम का निर्माण करता है, प्रकाश कहलाता है। पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोजन बनाते हैं। इसके लिए उन्हें ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जो उन्हें सूर्य के प्रकाश से विकिरण के रूप में प्राप्त होती है तथा भोजन के रूप में पौधों संग्रहीत हो जाती है। इस ऊर्जा पर जीव निर्भर रहते हैं। इस प्रकार प्रकाश के रूप में प्राप्त ऊर्जा पर समस्त जीव आश्रित हैं। प्रकाश के अभाव में पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

प्रकाश जीवों के विकास, वृद्धि एवं रंग को प्रभावित करता है। प्रकाश की कम या अधिक मात्रा के आधार पर ठण्डे प्रदेश के लोग गोरे तथा गर्म प्रदेश के लोग काले होते हैं। यह जीवों की जनन क्षमता को भी प्रभावित करता है। प्रकाश ही पत्तियों के पर्णरन्ध्रों के खुलने एवं बंद होने की क्रिया को नियंत्रित करता है। साधारणतया पर्णरन्ध्र सूर्योदय के समय खुलते तथा सूर्यास्त के समय बंद हो जाते हैं। यह पौधों की पर्याप्त एवं अपेक्षित वृद्धि के साथ उन्हें मजबूती प्रदान करता है। इसी कारण पर्याप्त प्रकाश में उगने वाले पौधों के तने छोटे, मोटे और मजबूत होते हैं जबकि अंधेरे में उगने वाले पौधों के तने दुर्बल, कमज़ोर एव क्षीण होते हैं। प्रकाश की उपस्थिति में पुष्पों एवं फलों की सामान्य वृद्धि होती है। यही कारण है कि जब वृक्षों तथा अनाज के पौधों में फूल आ रहे हों, उस समय प्रकाश का होना आवश्यक है।

रासायनिक कारक

ये वे कारक हैं जो अपने रासायनिक गुणों के द्वारा पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं

  1. जल कारक
  2. मृदा कारक

जल कारक

जल जीव मण्डल के जीवों की सभी जैविक क्रियाओं को प्रभावित करता है तथा यह जीवों की जैविक आवश्यकता है। जल के बिना जीवन असम्भव है। 

यह जीवों की शारीरिक संरचना का प्रमुख घटक है क्योंकि जीवद्रव्य का 70% से 90% भाग जल है। यह जीवों के ताप को भी नियन्त्रित करता है।

मृदा कारक

जीव और समष्टियाँ

मृदा जीवों के निवास के लिए आवश्यक है तथा इसके अभाव में पौधों का विकास असम्भव है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह प्राणियों को प्रभावित करती है। मृदा में पौधों के विकास के लिए आवश्यक तत्व- नाइट्रोजन, कार्बन, सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि विद्यमान होते हैं, जो पौधों के विकास एवं वृद्धि में सहायक होते हैं। मृदा की अम्लीयता एवं क्षारीयता भी पौधों को प्रभावित करती है।

अजैविक कारकों से अनुक्रिया-

किसी जीव का बाह्य वातावरण के साथ साम्यावस्था व सन्तुलन तथा प्रतिकूल वातावरणीय परिवर्तनो के बावूजद भी शरीर का स्थिर अनुकूल अन्तः वातावरण को बनाए रखने की क्षमताा को समस्थैतिकता कहते है।

बहुत से जीवधारी अपने शरीर का स्थिर वातावरण को बनाये रखने में सक्ष्म नही होते है। तनावयुक्त अजैविक कारकों से निपटने के लिए ये जीव निम्न क्रियाकलापों का सहारा लेता है।

  1. नियंत्रण (Regulation) नियमन

कुछ जीवधारी शरीर ताप व परासरणीय सान्द्रता को स्थिर बनाये रखने में सक्षम होते है तथा समस्थैतिकता को बनाये रखते है ऐसे सभी जीवधारी नियंत्रक कहलाते है। जैसे- स्तनधारी , पक्षी आदि।

चाहे अत्यधिक गर्म सहारा मरूस्थल हो या फिर अत्यधिक ठण्डा हो इनके शरीर ताप को नियंत्रित करने की क्षमता होती है पौधों में इस प्रकार की आंतरिक ताप नियंत्रण की कोई व्यवस्था नही होती हैं।

  1. अनुरूपता (Conformens) संरूपण

लगभग 99 प्रतिशत जीव या पौधें किसी स्थिर अनुकूल अन्तः वातावरण को बनाये रखने में सक्षम नही होते है तथा इनमें ताप नियंत्रण क्रियाविधि का भी अभाव होता है ऐसे जीव उष्माक्षेपी शीत रूधिर वाले या विषमतापी होते हैं।

बहुत से जलीय जीवों की परासरण सांद्रता स्थिर नही रहती है जल की सान्द्रता बदलने के साथ-साथ इनके शरीर तरल की सान्द्र्रता भी परिवर्तित होती है अतः वे सभी जीवधारी जिनका शरीर ताप व शरीर तरल परासरणीयता व्यापक वातावरण के साथ परिवर्तित होता है अनुरूपक कहलाते है।

  1. आंशिक नियंत्रक (Partical Regulator)

कुछ जन्तु अनुरूपक व नियंत्रक के मध्य की स्थिती में होते है। ये समस्थैतिकता को एक सीमा तक नियत बनाये रखते है किन्तु इनके आगे ये अनुरूपक की तरह व्यवहार करते है ऐसे जन्तुओं को आंशिक नियंत्रक कहते है जैसे- कुछ जलीय आकशेरूकी।

  1. अभिगमन (Migration) प्रवास करना

भोजन, अनुकूल मौसम, आवास एवं अन्य कारको से एक समष्टि द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए गमन मुख्यता अभिगमन कहलाता है ये दैनिक कालिक, मौसम के अनुसार भी हो सकता है।

मौसमी अभिगमन का अच्छा उदाहरण इस प्रकार है-सर्दी के मौसम साइबेरिया व उत्तरी क्षेत्रों से साइबेरियन पक्षी क्रेन, टील भोजन एवं उपयुक्त वातावरण की खोज में उड़कर केवलादेव राष्टीय उद्यान भरतपुर राजस्थान मं चले आते हैं।

  1. अस्थायी निष्क्रियता (Suspend) निलंबित करना-

जीवाणु, कवक निम्न पौधें विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए मोटी भित्ति वाले बीजाणुओं को उत्पन्न करते है जैसे ही अनुकूल दशा आती है ये अंकुरण करते है वे सभी जीव जो नियंत्रक नही है अभिगमन करने में भी सक्षम नही है विपरीत स्थितियों में अपने क्रिया कलापों अस्थायी रूप से निष्क्रिय करने के लिए शीत निष्क्रियता भ्पइमतदंजपवद या ग्र्रीष्म निष्क्रियता ।मेजपअंजपवद या डायापाल जैसे क्रिया अपनाते हैं।

  • जैविक कारक (Biotic factor)
जीव और समष्टियाँ

आबादी के जीवों पर अन्य जीवों का जो प्रभाव पड़ता है उसे जैविक कारक कहते हैं। जैविक कारकों को निम्नलिखित भागों में बांटा गया है-

  1. वनस्पति और जन्तुओं के बीच पारस्परिक सम्बन्ध –

किसी पारितंत्र में उत्पादक पौधे तथा उपभोक्ता जन्तु के बीच आपसी सम्बन्धों का सीधा प्रभाव उत्पादक पर पड़ता है यदि किसी प्रकार उपभोक्ता की संख्या बढ़ जाय तो इसका उत्पादक की संख्या पर प्रभाव पड़ेगा जिससे उत्पादक की संख्या कम हो जाती है। कुछ कीट भक्षी पौधे – डोसेरा, वीनस, प्लाइटैप व्लैडरवर्ट भूद्र्रिकुलेरिया नेपंथीज ऐसे स्थानों पर उगतें है जहां नाइटोजन की कमी होती है वैसे तो कीट भक्षी पौधे स्वापोषी होते किन्तु अपने नाइटोजन की पूर्ति के लिए कीटों का भक्षण करते है इन पौधां में कीटों को पकड़ने के लिए विशेष रचनाऐं होती हैं।

2.किसी स्थान पर उगने वाले पौधों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध-

किसी स्थान पर कोई पौधा उगता है तो उसके दूसरे पौधों के साथ क्या सम्बन्ध है ये निम्न प्रकार के होते है-

  1. अधिपादप (Epiphyte)

इसके अन्तर्गत आर्किडेसी कुल के पौधे आते है जो दूसरे पौधों पर उगते है किन्तु में अपना भोजन पौधें से ग्रहण नही करते ये अपना भोजन स्वयं बनाते है।

  1. परजीवी पौधें-

परजीवी पौधें अपना भोजन स्वयं नही बना पाते बल्कि अपने भोजन के लिए दूसरे पौेधे पर आश्रित रहते है ये पौधे निम्न दो प्रकार के होते है-

  1. पौधों और मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीवों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध-

विभिन्न प्रकार के जीवाणु, प्रोटोजोआ, शैवाल कवक आदि भूमि पर उगने वाले पौधों को प्रभावित करते है, कुछ पौधों की जड़ों में कवक एवं जीवाणु पायें जाते हैै जिसके कारण पौधों को नाइटोजन व अन्य पदार्थ मिलते रहते है।

लेग्भूमिनोसी कुल के सदस्यों की जड़ों की मूल ग्रन्थियों में पाया जाने वाला राइजोबियम नामक जीवाणु वायुमण्डल से नाइटोजन ग्रहण कर पौधों को देता है और पौधों से भोजन लेकर अपना जीवन चलाता है।

समष्टियाँ

एक ही जाति के जीवों के समूह को समष्टि कहते है जैसे- मानव की समष्टि, गेहूं की समष्टि। समष्टि में कुछ ऐसे गुण होते है जो व्यष्टि में नही होते है।

व्यष्टि जन्मता एवं मरता है लेकिन होती है समष्टि में जन्मदरें एवं मृत्यु दरें होती है समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यक्ति जन्म दर एवं मृत्युदर कहते है। इस लिए दर को समष्टि के समन्धों में परिवर्तन ;वृद्धि या हवासद्ध के रूप में प्रकट किया जाता है उदाहरण के लिए आदि किसी तालाब में पिछले साल कायल के 20 पौधें थें और जनन द्वारा 8 नयें पौधें हो जाते है जिससें वर्तमान में समष्टि 28 हो जाती है तो हम जन्मदर को 8/20 = 0.4 संतति प्रति कमल प्रति वर्ष के हिसाब से परिकल्पना करते है अगर प्रयोगशाला में 40 मधुमक्खियों में सं 4 मधुमक्खी किसी समय अन्तराल में मर जाते है तो उससमय के दौरान समष्टि में मृत्युदर 4/40 = 0.1 व्यष्टि प्रति फलनकर्ता प्रति सप्ताह कहलाएगी।

समष्टि में लिंग अनुपात व आयु पिरामिड-

समष्टि का दूसरा विशेष गुण लिंग अनुपात यानी नर एवं मादा का अनुपात है। व्यष्टि या तो नर या मादा है परन्तु समष्टि में लिंग अनुपात होता है किसे दिये ये समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनी होती है अगर समष्टि के लिए आयु वितरण (दी गई आयु या वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों का प्रतिशत) आरेखित किया जाता है तो बनाने वाली संरचना आयु पिरामिड कहलाती है।

मानव वर्ग के लिए आयु पिरामिड आमतौर पर नर व स्त्रियों का आयु वितरण संयुक्त आरेख को दर्शाता है इससें हमें पता चलता है।

  1. समष्टि का आकार क्या बढ़ रहा है।
  2. स्थिर है।
  3. आकार घट रहा है।

आयु पिरामिड तीन प्रकार के होते है-

  • त्रिभुजाकार पिरामिड (Triangle Shaped Pyramid)

इसमें पूर्व प्रजननी सदस्यों संख्या अधिक होती है। प्रजननी सदस्यों की संख्या मध्यम अनुपात में 

होती है। यह पिरामिड वृद्धि शील समष्टि को प्रदर्शित करता है।

  1. घंटी के आकार का पिरामिड (Bell Shaped Pyramid)

इसमें पूर्व प्रजननी सदस्यों की संख्या प्रजननी सदस्यों की संख्या के लगभग बराबर होती है यह पिरामिड स्थिर समष्टि को दर्शाता हैै-

  1. कुम्भाकार पिरामिड (Urn Shaped Pyramid)

इसमें पूर्वप्रजननी की संख्या प्रजननी की संख्या से बहुत कम होती हैं। यह पिरामिड बनाता हैै की समष्टि घट रही है।

समष्टि का आकार या घनत्व –

समष्टि का आकार या घनत्व व्यष्टियों की वह संख्या है जो एक ईकाई क्षेत्र या स्थान पर दिये हुये समय में उपस्थित रहता हैं।

समष्टि वृद्धि (Population Growth) –

किसी जाति के लिए समष्टि का आकार निश्चित नही होता है यह समयानुसार बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों जैसे आहार उपलब्धता, परभसक्षण दाब और मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है दी गई अवधि के दौरान दिये गये आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता एवं बढ़ता है।

माना किसी क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व समय ज पर त्र छज

समय t1 के बाद क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व – N1.1

Nt1 = Nt (BI) – (D़E)

इन चारों में से दो जन्मदर व आप्रवासन समष्टि घनत्व को बढ़ाते है किन्तु मृत्युदर एवं उत्प्रवासन समष्टि घनत्व को घटाते है।

  1. जन्मदर (Birth rate)

जन्मदर से मतलब समष्टि में जन्मी उस संख्याऐं है जो दिये गये अवधी के दौरान आरम्भिक जनसंख्या घनत्व में जुड़ती है।

  1. मृत्युदर (Death rate)

ये दी गई अवधि में व्यष्टि के मौतां की संख्या है।

  1. आप्रवासन (Immigration)

उसी जाति के व्याष्टियों की वह संख्या है जो दी गई, समय अवधि के दौरान आवास में कहीं और से आयें हैं।

  1. उत्प्रवासन (Emigration)

समष्टि के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समयावधि में के दौरान आवास छोड़ कर कहीं और चलें गयेंह।

 जैव सूचकांक (Vital Indux)

इसमें जन्मदर, मृत्युदर का प्रतिशत अनुपात एक ईकाई समष्टि व एक इकाई समय में मापा जाता है।

Vital Indux = Birthrate/Deathrate  100

ऽ यदि जैव सूचकांक का मान 100 से अधिक है तो समष्टि वृद्धि कर रही हैंै।

ऽ 100 आता है तब समष्टि स्थिर है।

ऽ 100 से कम आता है तब समष्टि घट रही है।

 वृद्धि माडल (Growth Model)

ये दो प्रकार के होते है।

  1. चरघतांकी वृद्धि माडल (Exponetial Growth Mode) –

किसी समष्टि की आबाधित वृद्धि के लिए संसाधन (आहार व स्थान) का उपलब्ध होना आवश्यक है। आदर्शतः आवास में जब संसाधन असीमित होते है तो प्रत्येक जाति में संख्या में वृद्धि कर सकने की अपनी जन्मजात शक्ति को पूरी तरह अनुभव करने योग्यता होती है।

तब डार्विन के अपने प्रकृतिवरण के सिद्धांत के अनुसार समष्टि चरघांतकी शैली में वृद्धि करते है।

अगर छ आकार के समष्टि में जन्मदरें इ के रूप मे एवं मृत्युदरें क के रूप में निरूपित की जाती है तो इकाई समय अवधि ज;कछध्कजद्ध के दौरान वृद्धि या कमी निम्न होगी-

dN/dt = (b-d) N

dN/dt = rn r = प्राकृतिक वृद्धि की इंटीन्जिक दर

= b-d

Intigrated form

Nt = Noert

Nt = समय t में घनत्व

No = समय 0 शून्य में घनत्व

r = प्राकृतिक वृद्धि दर

e = 3.71828 प्राकृतिक लघुगणकों का आधार

  1. संभार वृद्धि माडल (Logestic G.M.) –

प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास असीमित संसाधन नही होते है कि चरघातांकी वृद्धि हो इसके कारण सीमित संसाधन के लिए व्यक्तियों में प्रति स्पर्धा होती है आखिर में योग्यतम व्यक्ति जीवित बना रहता है और जनन करता है।

प्रकृति में दिये गये आवास के पास अधिकतम संभव संख्या के पोषण के लिए पर्याप्त सीमित संसाधन होते है इसके आगे वृ़द्ध नही होती उस आवास उस जाति के रहने के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता यदि इस प्रकार के वृद्धि तंत्र में समय ज के सन्दर्भ में छ का आलेख से सिग्माइॅड वक्र बनता है। इस प्रकार की समष्टि वृद्धि को विर्हुस्ट पर्ल लाजिस्टिक वृद्धि भी कहा जाता है। यह निम्न समीकरण द्वारा वर्णित होता ।

dN/dt = rn (k-N/k)

N = समय N = समष्टि घनत्व

K = पोषण क्षमता

समष्टि पारस्परिक क्रियाएं-

किसी भी जाति के लिए न्यूनतम आवश्यक एक और जाति की जिसकों वह भोजन के रूप में ग्रहण कर सकें-

समष्टि में समान जाति या विभिन्न जाति के बीच में पारस्परिक क्रिया होती है- ये दो प्रकार की होती है।

  1. अन्तराजातीय अन्तः क्रियाएं (Interspecific Interaction)

यह दो भिन्न समष्टियों की पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होती है।

  1. अन्तराजतीय अन्तः क्रियाएं (Interspecific Interaction)

यह समान समष्टि की पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होती है।

 उदासीन अन्तक्रिया (Neutral Interaction)

इस प्रकार की अन्तः क्रियाओं में किसी भी सहयोगी को न तो लाभ, न तो हानि होती है जैसे- कलभक्षी एवं कीट भक्षी पक्षियों का एक साथ रहना।

 ऋणात्मक अन्तःक्रिया (Negative Interaction)

जीवो के मध्य होने वाली वह पारस्परिक क्रिया जिसमें एक या दोनों जीवों को हानि होता है ये निम्न प्रकार की होती है।

  1. परभक्षण (Predation)

यह दो जातीय के मध्य अस्थायी वास्तविक सम्बन्ध है जिसमें एक जाति के जीव दूसरे जाति के जीव को मारकर भोजन के रूप खाता है इसमें एक जीव को लाभ व दूसरे जीव को हानि होती है।

  1. स्पर्धा (Compititon)s

जीवों के बीच स्थान, जल, भोजन, खनिज लवण तथा अन्य संसाधनों के लिए स्पर्धा होती है एक जाति के जीवों स्पर्धा अन्तरजातीय स्पर्धा व भिन्न जाति के जीवों के बीच स्पर्धा कहलाती है इसमें दोनों जीवों को हानि होती हैं।

  1. परजीविता (Parasitism)

ये विषमपोषी जीव है जो परपोषी जीव से अपना आहार प्राप्त करते है।

  1. ऐमेन्सेलिजम (Ammensalism)

यह वह क्रिया है जिसमें एक जीव रसायनों एलोकेमिकल्स का स्त्राव करते है, और दूसरे जीव को अपने आस-पास नही उगने, ठहरने देते जैसे- सूर्यमुखी, जौ अपने आस-पास खरपतवार उत्पन्न नही होने देतें।

 धनात्मक अन्तक्रियाऐं (Positive Interactive)

इसमें एक जीव या दोनों जीव को लाभ होता है ये निम्न प्रकार के होते है-

  1. अपमार्जक (Scarenging)

मृत जन्तुओं का भक्षण करने वाले जीव अपमार्जक कहलाते है जैसे-गिद्ध, लकड़बग्घा आदि।

  1. सहभोजिता (Commansalism)

इस सम्बन्ध में एक जीव को लाभ तथा दूसरे जीव को न लाभ न हानि होती है आम की शाखा पा आर्किट पौधा व व्हेल के पीठ की आवास बनाने वाले बर्निकल को लाभ होता है किन्तु आम के पेड़ व व्हेल को न लाभ न हानि होता हैं।

  1. सहोपकारिता (Mutalism) सहजीवी-

इसमें दोनो जीवों को लाभ होता है जैसे लाइकेन मे कवक व शैवाल एक दूसरे से लाभ प्राप्त करते है।

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