अध्याय 14

कक्षा 12 Science रसायन विज्ञान अध्याय 14

जैव अणु

जैव अणु

सभी जीवित प्रणियों में पाए जाने वाले वे निर्जीव जटिल कार्बनिक यौगिक जो जीवित प्राणियों में वृद्धि एवं उनका पोषण करते हैं। उन्हें जैव अणु कहते हैं।

जैव अणु शरीर के क्रियाकलापों के लिए आवश्यक होते हैं। इनका निर्माण मुख्यतः ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैल्शियम तथा फास्फोरस आदि तत्वों से होता है।

उदाहरण – कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, हार्मोन आदि जैव अणु है।

हार्मोन

वह रसायनिक पदार्थ जो शरीर में अंतः स्रावी ग्रंथियों द्वारा उत्सर्जित होते हैं। तथा जो कोशिकाओं के मध्य एक संचार व्यवस्था का कार्य करते हैं। उन रासायनिक पदार्थों को हार्मोन कहते हैं। हार्मोन अंतः स्रावी ग्रंथियों द्वारा रक्त में स्रावित होते हैं। इन्हें रसायनिक संदेशवाहक भी कहते हैं। हार्मोन रक्त के प्रवाह द्वारा लक्ष्य कोशिका तक पहुंचकर रसायनिक सूचक का कार्य करते हैं। प्रत्येक हार्मोन का अपना विशिष्ट कार्य होता है। हार्मोन बहुत कम मात्रा में ही उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर को इनकी अल्प मात्रा की ही आवश्यकता होती है।

हार्मोन का वर्गीकरण

हार्मोन को रासायनिक संरचना के आधार पर निम्नलिखित तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

  • स्टेरॉयड हार्मोन
  • पॉलिपेप्टाइड हार्मोन
  • ऐमीन हार्मोन
  1. स्टेरॉयड हार्मोन :- एक स्टेरॉयड हार्मोन के अणु में स्टेरॉयड नाभिक उपस्थित रहता है। टेस्टोस्टेरॉन, एस्टोजन, प्रोजेस्टेरॉन तथा कोर्टिसोन आदि स्टेरॉयड हार्मोन के उदाहरण हैं। इनकी संरचनाएं निम्न प्रकार होती हैं।
  1. टेस्टोस्टेरॉन :- इस हार्मोन का प्रमुख स्रोत वृषण है। यह पुरुष जननांगों के विकास एवं सामान्य कार्य को नियंत्रित करने का कार्य करता है।
  2. प्रोजेस्टेरॉन :- इसका प्रमुख स्रोत कॉर्पस ल्यूटियम एड्रिनल कॉटेक्स है। यह हार्मोन वसा, खनिज लवण, जल, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व अन्य हार्मोन के उपापचय एवं गर्भावस्था के विकास का नियंत्रण करता है।
  3. एस्टोजन :- इसका प्रमुख स्रोत अंडाशय है। यह स्त्री जननांगों के विकास को नियंत्रित करता है।
  1. पॉलिपेप्टाइड हार्मोन :- पॉलिपेप्टाइड हार्मोन में एक या एक से अधिक पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाएं उपस्थित रहती हैं। इंसुलिन इस वर्ग का महत्व हार्मोन है। ऑक्सीटॉसिन, वेसोप्रोसिन, इंसुलिन तथा ग्लूकैगॉन आदि पॉलिपेप्टाइड हार्मोन के उदाहरण हैं।
  1. इंसुलिन :- इंसुलिन का प्रमुख स्रोत अग्नाशय होता है। यह रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करता है।
  2. ऑक्सीटॉसिन :- इसका प्रमुख स्रोत पश्च पिट्यूटरी होता है। यह कुछ विशेष मांसपेशियों को संकुचित करता है।
  3. वेसोप्रोसिन :- इसका प्रमुख स्रोत प्रोस्टेट होता है। यह शरीर से जल उत्सर्जन को मूत्र के रूप में नियंत्रित करने का कार्य करता है।
  1. ऐमीन हार्मोन :- ऐमीन हार्मोन, जल में विलेय ऐमीन यौगिक होते हैं। एड्रीनलिन तथा थायरोक्सीन ऐमीन हार्मोन के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इनकी संरचना निम्न प्रकार से होती है।
  1. एड्रीनलिन :- एड्रीनलिन हार्मोन का प्रमुख स्रोत अधिवृक्क मध्यांश होता है। यह ग्लाइकोजन से ग्लूकोस व वसा से वसा अम्लों को मुक्त करता है। एवं यह हृदय गति तथा रक्तदाब को नियंत्रित करने का कार्य करता है।
  2. थायरोक्सीन :- इसका थायराइड प्रमुख स्रोत है। यह सामान्य विकास को निरंतर करने का कार्य करता है।

एमिनो अम्ल

वे यौगिक जिनके एक अणु में एक या अधिक कार्बोक्सिलिक समूह (-COOH) तथा एक या अधिक ऐमीनो समूह (–NH2) उपस्थित होता है। तो उस यौगिक को एमिनो अम्ल कहते हैं। एमिनो अम्ल प्रोटीन की आधारभूत इकाई है। इसमें ऐमीनो तथा कार्बोक्सिलिक क्रियात्मक समूह उपस्थित होते हैं जैसे –

इसमें ऐमीनो समूह NH2 तथा कार्बोक्सिलिक समूह COOH है। इसलिए यह अमीनो अम्ल का एक उदाहरण है।

एमिनो अम्ल का वर्गीकरण

एमिनो अम्ल को उनके अणुओं में उपस्थित ऐमीनो तथा कार्बोक्सिलिक क्रियात्मक समूह की संख्या के आधार पर तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है।

  • उदासीन एमिनो अम्ल
  • अम्लीय एमिनो अम्ल
  • क्षारीय एमिनो अम्ल
  1. उदासीन एमिनो अम्ल :- वे एमिनो अम्ल जिसमें ऐमीनो तथा कार्बोक्सिलिक समूह की संख्या समान होती है। तो उन्हें उदासीन एमिनो अम्ल कहते हैं।

जैसे – ग्लाइसीन, एलेनीन

आवश्यक तथा अनावश्यक एमिनो अम्ल

वे एमिनो अम्ल जो शरीर में संश्लेषित नहीं होते है तथा जिनको भोजन द्वारा लेना आवश्यक होता है। तो उन्हें आवश्यक एमिनो अम्ल कहते हैं।

जैसे – बैलीन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन, अर्जीनीन, लाइसीन, थ्रीयोनीन, मैथियोनीन, फेनिल एलेनीन, ट्रिप्टोफेन तथा हिस्टीडीन आवश्यक एमिनो अम्ल के उदाहरण हैं।

वे एमिनो अम्ल जो शरीर में संश्लेषित हो जाते हैं। उन्हें अनावश्यक एमिनो अम्ल कहते हैं।

जैसे – ग्लाइसीन, एलानीन, ग्लूटैमिक अम्ल, ऐस्पार्टिक अम्ल, ग्लूटेमीन, सेटीन, सिस्टीन, टाइरोसीन तथा प्रोलीन अनावश्यक एमिनो अम्ल के उदाहरण हैं।

एमिनो अम्ल की गुण

  • एमिनो अम्ल रंगहीन, क्रिस्टलीय ठोस पदार्थ होते हैं।
  • इनके गलनांक उच्च होते हैं।
  • यह जल में विलेय होते हैं।

ज्विटर आयन

एमिनो अम्ल में अम्लीय कार्बोक्सिलिक समूह तथा क्षारीय ऐमीनो समूह उपस्थित होते हैं। जलीय विलयन में कार्बोक्सिलिक समूह एक प्रोटीन का त्याग करता है जबकि ऐमीनो समूह एक प्रोटीन ग्रहण कर लेता है। जिसके फलस्वरूप एक द्विध्रुवीय आयन का निर्माण होता है जिसे ज्विटर आयन कहते हैं। ज्विटर आयन उदासीन होता है। परंतु इसमें धनावेश पर ऋणावेश दोनों उपस्थित रहते हैं।

R.N.A

R.N.A का पूरा नाम राइबोस न्यूक्लिक अम्ल होता है। आरएनए अणुओं में राइबोस शर्करा होती है। जबकि डी.एन.ए अणुओं में डीऑक्सी राइबोस शर्करा होती है। कोशिका में प्रोटीन का संश्लेषण RNA अणुओं द्वारा ही होता है आरएनए में चार क्षारक होते हैं।

  • एडीनीन
  • ग्वानीन
  • साइटोसीन
  • यूरेसिल

आरएनए में प्रथम तीन क्षारक डी.एन.ए के समान ही होते हैं तथा चतुर्थ क्षारक भिन्न होता है। डी.एन.ए में थायमीन होता है। जबकि आरएनए में यूरेसिल होता है।

RNA (अथवा DNA) के पूर्ण जल अपघटन से एक पेंटोस शर्करा, फॉस्फोरिक अम्ल तथा नाइट्रोजन युक्त विषम चक्रीय यौगिक प्राप्त होते हैं। जिसे क्षारक कहते हैं। RNA में राइबोस शर्करा होती है। जिसका चित्र नीचे दर्शाया गया है एवं कार्बन की गिनती को भी लिखा गया है।

RNA की संरचना

RNA की द्वितीयक संरचना में कुंडली केवल एक रज्जुक से निर्मित होती है एवं यह कभी-कभी अपनी संरचना को मोड़कर द्वि-कुंडलीय संरचना का निर्माण कर लेती है।

आरएनए अणु तीन प्रकार के होते हैं।

  1. संदेशवाहक RNA – जिसे m – RNA द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
  2. राइबोसोमल RNA – जिसे r – RNAद्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
  3. अंतरण RNA – जिसे t – RNA द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

DNA और RNA में अंतर

DNA और RNA अणुओं में दो प्रकार की भिन्नताएं (अंतर) पायी जाती हैं। संरचनात्मक अंतर तथा क्रियात्मक अंतर।

संरचनात्मक अंतर

  • डी.एन.ए में β -D-डीऑक्सी राइबोस शर्करा होती है जबकि आरएनए में β-D-राइबोस शर्करा होती है।
  • DNA में एडीनीन, सायटोसीन, ग्वानीन तथा थायमीन क्षारक होते हैं जबकि RNA में एडीनीन, सायटोसीन, ग्वानीन तथा यूरेसिल क्षारक होते हैं।
  • DNA की द्वि-कुंडलित (द्वि-रज्जु) संरचना होती है। जबकि RNA की संरचना एकल कुंडलित (एकल-रज्जु) पाई जाती है।
  • DNA अणु अत्यधिक बड़े होते हैं जबकि RNA अणु अपेक्षाकृत छोटे होते हैं।

संरचनात्मक अंतर

  • DNA अनुवांशिक गुणों के स्थानांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जबकि RNA प्रोटीन संश्लेषण को नियंत्रित करता है।
  • DNA में प्रतिकरण का एक विशेष गुण पाया जाता है जबकि RNA में प्रतिकरण का गुण सामान्यतः नहीं पाया जाता है।

डी.एन.ए (D.N.A)

DNA का पूरा नाम डी ऑक्सीराइबोह न्यूक्लिक अम्ल होता है। डी.एन.ए की खोज फ्रेडरिक मिशर ने सन् 1869 में पस कोशिकाओं के केंद्रक में की थी। यह अनुवांशिक सूचनाओं का वाहक है। DNA लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाता है जिस कारण इसे अनुवांशिक अणु भी कहते हैं। डी.एन.ए में β-D-डीऑक्सीराइबोस शर्करा होती है।

डी.एन.ए में चार क्षारक होते हैं।

  • एडीनीन
  • ग्वानीन
  • साइटोसीन
  • थायमीन

डी.एन.ए का एक अणु द्विकुंडलिनी अथवा दोहरे हेलिक्स वाला एवं सर्पिल सीढ़ी के आकार का होता है। डी.एन.ए में डीऑक्सीराइबो शर्करा होती है। जिसे चित्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है।

डी.एन.ए की संरचना

DNA की द्विकुंडलिनी संरचना सर्वप्रथम जेम्स वाटसन तथा फ्रांसिस क्रिक ने सन् 1953 में दी। इनके अनुसार, DNA अणु पॉलिन्यूक्लियोटाइड की दो प्रतिसमांतर श्रंखलाओं से बना होता है। इन दो न्यूक्लियोटाइड में से एक न्यूक्लियोटाइड फॉस्फेट समूह तथा दूसरा न्यूक्लियोटाइड शर्करा अणु के 3’ कार्बन परमाणु के साथ जुड़ा होता है। इस प्रकार दो शर्करा अणुओं के मध्य 3’ और 5’ स्थितियों पर बंध बनता है। दो श्रंखलाओं के नाइट्रोजनी क्षारक हाइड्रोजन बंधों द्वारा जुड़े रहते हैं। जिससे DNA अणु का निर्माण होता है।

नाइट्रोजनी क्षारक दो प्रकार के होते हैं।

  • प्यूरीन क्षार – यह एडीनीन तथा ग्वानीन होते हैं।
  • पिरिमिडीन क्षार – यह साइटोसीन तथा थायमीन होते हैं।

नाइट्रोजनी क्षारक, न्यूक्लियोटाइड बनाते हैं।

नाइट्रोजनी क्षारक + पेंटोस शर्करा = न्यूक्लियोटाइड

DNA उच्च अणुभार वाले दीर्घ अथवा वृहत् अणु होते हैं DNA अणु हजारों न्यूक्लियोटाइड का बहुलक होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड, डीऑक्सिराइबोस शर्करा, नाइट्रोजनी क्षारक तथा फॉस्फेट का बना होता है।

डी.एन.ए फिंगरप्रिंटिंग

DNA अंगुलिछापन या DNA फिंगर प्रिंटिंग प्रत्येक व्यक्ति का अलग होता है। किसी व्यक्ति में DNA के क्षारकों का अनुक्रम अद्वितीय होता है। इसे ज्ञात करना ही डी.एन.ए फिंगरप्रिंटिंग कहलाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति का अन्य व्यक्ति से भिन्न होता है।

आजकल अंगुली छापन का उपयोग अधिकतम होने लगा है जैसे –

  • अपराधी की पहचान करने में।
  • दुर्घटना जैसे – बाढ़, भूकंप आदि में मारे गए व्यक्तियों की पहचान मृतक के बच्चों तथा परिवार के सदस्यों के DNA की तुलना करके की जाती है।
  • किसी बच्चे के पितृत्व को निर्धारित करने में इसका प्रयोग होता है।

न्यूक्लिक अम्ल

न्यूक्लिक अम्ल की खोज फ्रेडरिक मिशर सन् 1869 में की थी। अम्लीय प्रकृति के कारण इसे न्यूक्लिक अम्ल नाम दिया गया। न्यूक्लिक अम्ल सभी कोशिकाओं के नाभिक (केंद्रक) में उपस्थित होते हैं। यह उच्च अणुभार वाले वृहत् अणु होते हैं। न्यूक्लिक अम्ल न्यूक्लियोटाइड के बहुलक होते हैं। अतः इन्हें पॉलिन्यूक्लियोटाइड भी कहते हैं।

न्यूक्लिक अम्ल के प्रकार

न्यूक्लिक अम्ल दो प्रकार के होते हैं।

  • डीऑक्सी राइबोन्यूक्लिक अम्ल
  • राइबोन्यूक्लिक अम्ल

न्यूक्लियोसाइड एवं न्यूक्लियोटाइड में अंतर

जब पिरिमिडीन का स्थान-1 अथवा प्यूरिन इकाई की स्थान संख्या-9, शर्करा (राइबोस अथवा डीऑक्सीराइबोस) के C-1 से β-आबंधन द्वारा संयोजित होते हैं। तब न्यूक्लियोसाइड का निर्माण होता है।

न्यूक्लियोटाइड में नाइट्रोजनी क्षारक, पेन्टोस शर्करा तथा फॉस्फेट समूह तीनों न्यूक्लिक अम्ल के मुख्य यौगिक उपस्थित होते हैं। इन्हें पेन्टोस शर्करा के -OH समूह के फॉस्फेट अम्ल द्वारा एस्टीकरण से प्राप्त किया जाता है।

न्यूक्लिक अम्ल की संरचना

न्यूक्लिक अम्ल न्यूक्लियोटाइडों की लंबी श्रंखला वाले बहुलक होते हैं। जिस कारण इसे पॉलिन्यूक्लियोटाइड भी कहते हैं। अतः एक न्यूक्लिक अम्ल के निर्माण में हजारों न्यूक्लियोटाइडों के अणु बहुलीकरण प्रक्रिया में भाग लेते हैं।

इस प्रकार न्यूक्लिक अम्ल में लंबी श्रंखलाएं होती है। यह लंबी श्रंखलाएं कुछ इस प्रकार होती है। कि एक न्यूक्लियोटाइड के शर्करा इकाई से क्रमागत रूप से दूसरे न्यूक्लियोटाइड के सल्फेट समूह से जुड़े रहने के कारण इनकी लंबी श्रंखलाएं बनती है। जिसे निम्न प्रकार दर्शाया गया है।

न्यूक्लिक अम्ल के जैविक कार्य

न्यूक्लिक अम्ल जीवों की कोशिकाओं के नाभिक में उपस्थित होते हैं। न्यूक्लिक अम्ल में ही जीवों की अनुवांशिक सूचना संचित होती है।

प्रतिकरण :- डी.एन.ए. अनुवांशिकता का रासायनिक आधार है। प्रतिकरण प्रक्रिया में एक DNA अणु कोशिका विभाजन के मध्य अपनी समान दो प्रतिक्रियाएं बनाता है।

प्रोटीन का संश्लेषण :- न्यूक्लिक अम्ल का अन्य महत्वपूर्ण कार्य प्रोटीन का संश्लेषण है। डी.एन.ए कोशिका में प्रोटीन संश्लेषण के लिए एक निर्देश तंत्र का कार्य करते हैं। वास्तव में DNA कोशिका में प्रोटीन संश्लेषण का आरंभ, मार्गदर्शन एवं नियंत्रण करते हैं। कोशिका में प्रोटीन का संश्लेषण विभिन्न RNA अणुओं द्वारा होता है।

विटामिन

भोज्य पदार्थों में पाए जाने वाले जटिल कार्बनिक पदार्थ जो शरीर की वृद्धि तथा पोषण करते हैं एवं इनकी कमी से विशेष रोग हो जाते हैं। विटामिन कहलाते हैं। विटामिन जीवन के लिए आवश्यक होते हैं। हमारे शरीर में इनका संश्लेषण नहीं होता है हम इन्हें भोज्य पदार्थों द्वारा प्राप्त करते हैं।

विटामिन कई प्रकार के होते हैं प्रत्येक विटामिन शरीर के लिए आवश्यक है। एक भी विटामिन की अनुपस्थिति या कमी होती है तो शरीर में विशिष्ट रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

विटामिन के प्रकार

विटामिन को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है।

  1. वसा में विलेय विटामिन :- यह विटामिन वसा तथा तेल में विलेय होते हैं एवं इस वर्ग के विटामिन जल में अविलेय होते हैं।

उदाहरण – विटामिन A, विटामिन D, विटामिन E तथा विटामिन K इस वर्ग के विटामिन हैं।

  1. जल में विलेय विटामिन :- यह विटामिन जल में विलेय होते हैं एवं इस वर्ग के विटामिन वसा तथा तेल में अविलेय होते हैं।

उदाहरण – विटामिन B कॉम्पलेक्स तथा विटामिन C इस वर्ग के विटामिन हैं।

विटामिन A

विटामिन A का रासायनिक नाम रेटिनॉल होता है। यह वसा तथा तेल में विलेय विटामिन है इसका अणुसूत्र C20H30O होता है।

  • विटामिन A के स्रोत :- दूध, मक्खन, गाजर, हरी सब्जियां, दालें, मछली के यकृत का तेल, अंडा आदि।
  • कमी से उत्पन्न रोग :- रतौंधी, त्वचा का शुष्क हो जाना, जिरोप्थैलमिया (कार्निया का धुंधलापन)
  • लक्षण :- कम प्रकाश में दिखाई न देना, धब्बे दिखना, आंखों से लिसलिसा पदार्थ का निकलना।

विटामिन B

विटामिन B के कई भाग होते हैं।

  1. विटामिन B1

विटामिन B1 का रसायनिक नाम थायमीन होता है। यह दालें, छिकले सहित अनाज, हरी सब्जियां, दूध, अंडा तथा सोयाबीन में पाया जाता है। इसकी कमी से बेरी-बेरी रोग हो जाता है।

  • विटामिन B2

विटामिन B2 का रसायनिक नाम राइबोफ्लेविन होता है। यह जल में विलेय तथा वसा व तेल में अविलेय होता है।
यह मांस, मटर, यकृत, दूध, अंडा तथा सब्जियों में पाया जाता है। इसकी कमी से किलोसिस (होंठों व मुंह के किनारों का फटना) रोग हो जाता है।

  • विटामिन B6

विटामिन B6 का रसायनिक नाम पाइरिडॉक्सिन होता है। यह जल में विलेय तथा वसा व तेल में अविलेय होता है।
यह खमीर, दूध, अंडा, बंदगोभी आदि में पाया जाता है। इसकी कमी से दुर्बलता, नींद न आना, तंत्रिका तंत्र में अनियमितता आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

  • विटामिन B12

विटामिन B12 का रसायनिक नाम साइनोकोबालऐमीन होता है। यह जल में विलेय होता है परंतु वसा व तेल में अविलेय है।
यह यकृत, पनीर, दूध, मांस, मछली, अंडा में पाया जाता है। इसकी कमी से पर्निसियस एनीमिया नामक रोग हो जाता है।

विटामिन C

विटामिन C का रासायनिक नाम एस्कोर्बिक अम्ल होता है। इसका अणु सूत्र C6H8O6 होता है। यह जल में विलेय परंतु वसा एवं तेल में अविलेय विटामिन है।

  • विटामिन C के स्रोत :- आंवला, नींबू, संतरा, टमाटर, अनन्नास आदि रसीले फल, हरी पत्तेदार सब्जियां आदि।
  • कमी से उत्पन्न रोग :- स्कर्वी (मसूड़ों से रक्त का बहना)
  • लक्षण :- हड्डियों का कमजोर होना, घाव का देरी से भरना, मसूड़ों से खून आना आदि।

विटामिन D

विटामिन D का रासायनिक नाम एग्रोकैल्सिफेरॉल होता है। यह वसा एवं तेल में विलेय होता है परंतु जल में अविलेय होता है। इसका अणुसूत्र C28H44O होता है।

  • विटामिन D के स्रोत :- सूर्य के प्रकाश से विटामिन D का निर्माण त्वचा द्वारा होता है, दूध, मछली के यकृत का तेल, मक्खन, अंडा तथा मांस आदि।
  • कमी से उत्पन्न रोग :- रिकेट्स अस्थिरोग (बच्चों में), वयस्कों में ओस्टियो मैलेशिया आदि।
  • लक्षण :- दांतों में विकृति, जोड़ों में सूजन आदि।

विटामिन E

विटामिन E का रासायनिक नाम टेकोफेरॉल्स होता है। यह वसा तथा तेल में विलेय एवं जल में अविलेय होता है। इसका अणुसूत्र C29H50O2 होता है।

  • विटामिन E के स्रोत :- वनस्पति तेल, दूध, सूरजमुखी का तेल, अंडा, मछली आदि।
  • कमी से उत्पन्न रोग :- प्रजनन क्षमता को ह्यस, मांसपेशियों में कमजोरी
  • लक्षण :- जंतुओं में पेशी ताकतों का क्षय होना।

विटामिन K

विटामिन K का रासायनिक नाम फाइलोक्विनोन होता है। यह वसा व तेल में विलेय होता है तथा जल में अविलेय होता है। इसका अणुसूत्र C31H46O2 होता है।

  •  विटामिन K के स्रोत :- हरे पत्ते वाली सब्जियां, सोयाबीन, गोभी आदि।
  • कमी से उत्पन्न रोग :- रक्त स्कंदन (रक्त का थक्का जमने में अधिक समय लगना)
  • लक्षण :- रक्त का थक्का जमने में अधिक समय लगना, शिशुओं में मस्तिष्क रक्त स्राव का न रुकना।

एंजाइम

वह ग्लोबुलर (गोलिकाकार) प्रोटीन, जो जीवित तंत्रों में जैव उत्प्रेरक का भांति कार्य करते हैं। उन्हें एंजाइम कहते हैं। एंजाइम का निर्माण जीवित कोशिकाओं द्वारा होता है। यह गोलिकाकार प्रोटीन ही होते हैं।

अगर हम कल्पना करें, कि एंजाइम न हो तो जीवित प्रक्रियाएं बहुत धीमी होंगी अगर मानव शरीर की बात करें तो एंजाइम की अनुपस्थिति में एक बार खाए गए भोजन को पचाने में लगभग 50 साल तक का समय लग जाएगा।

सभी एंजाइम सामान्यतः प्रोटीन होते हैं। लेकिन कुछ एंजाइम जैसे रिवोजाइम प्रोटीन नहीं होते हैं। एंजाइम उच्च अणुभार वाले नाइट्रोजन युक्त जटिल कार्बनिक यौगिक होते हैं। जो जीवित कोशिकाओं में उत्पन्न होते हैं।

एंजाइम का नामकरण साधारणतः पद्धति में जिस यौगिक से वह क्रिया करता है। उसके नाम में (ऐस) जोड़ देते हैं। जैसे –

माल्टोस के जल अपघटन को माल्टेस एंजाइम उत्प्रेरित करता है।

ऐसे ही सुक्रोज में सुक्रेस, स्टार्च (एमाइलम) में एमाइलेज तथा यूरिया पर यूरिऐज क्रिया करता है।

एंजाइम के गुण

  • प्रत्येक एंजाइम केवल एक विशिष्ट प्रकार की अभिक्रिया को ही उत्प्रेरित करता है।
  • एंजाइम की कार्य क्षमता अत्यधिक होती है इसकी सूक्ष्म मात्रा ही अभिक्रिया को प्रेरित कर देती है।
  • एंजाइम की क्रियाशीलता मानव शरीर तापमान लगभग 37°C (310K) पर अधिकतम होती है। इससे नीचे जाने पर अभिक्रिया धीमी हो जाती है।
  • एंजाइम की क्रियाशीलता pH मान पर निर्भर करती है। pH मान को बढ़ाने अथवा कम करने पर अभिक्रिया की क्रियाशीलता प्रभावित होती है।

एंजाइम के उपयोग

  1. दूध से पनीर के निर्माण में एंजाइम का उपयोग होता है।
  2. पाचन क्रिया में सहायक होता है।
  3. औषधियों के निर्माण में।
  4. शराब, मदिरा तथा बीयर आदि में कार्बोहाइड्रेट के किण्वन में एंजाइम प्रयोग होता है।
  5. पेनिसिलिन तथा इंसुलिन के निर्माण में।

एंजाइम की कमी से रोग

  • फेनिल ऐलानीन हाइड्रोक्सिलेज एंजाइम की कमी से फेनिलकीयोन्यूरिया घातक रोग उत्पन्न हो जाता है।
  • एंजाइम ट्रायोसिनेज की कमी से ऐल्बीनिज्म रोग उत्पन्न हो जाता है।

प्रोटीन

प्रोटीन शरीर का निर्माण करते हैं। यह उच्च अणुभार वाले जटिल कार्बनिक यौगिक हैं। यह जीवित प्राणियों के लिए आवश्यक है। प्रोटीन कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन तथा नाइट्रोजन के यौगिकों से बने होते हैं। कुछ प्रोटीन फास्फोरस तथा सल्फर में भी पाए जाते हैं यह वनस्पतियों तथा जंतुओं में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रोटीन, ऐमीनो अम्ल के बहुलक होते हैं। प्रोटीन के मुख्य स्रोत दूध, दही, दालें, मटर, मछली, पनीर, मांस, मूंगफली, अंडा आदि हैं।

प्रोटीन के प्रकार

आण्विक संरचना के आधार पर प्रोटीन को दो भागों में बांटा गया है।

  • रेशेदार प्रोटीन 
  • गोलिकाकार प्रोटीन
  1. रेशेदार प्रोटीन :- वह प्रोटीन जिसमें पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाएं फाइबर (रेशे जैसी) संरचना का निर्माण करती हैं। तथा पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाएं समांतर होती हैं एवं यह आपस में हाइड्रोजन बंध द्वारा जुड़ी रहती हैं। अर्थात् इनमें अंतराअणुक बल प्रबल होता है। रेशेदार प्रोटीन जल में अविलेय होते हैं।

उदाहरण – बाल, नाखून में उपस्थित किरेटिन तथा मांसपेशियों में उपस्थित मायोसिन एवं रेशम में उपस्थित फाइब्रॉइन आदि रेशेदार प्रोटीन के सामान्य उदाहरण हैं।

  1. गोलिकाकार प्रोटीन :- वह प्रोटीन जिनमें पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाएं इस प्रकार व्यवस्थित होती है कि वे प्रोटीन अणु को एक गोल आकृति प्रदान करती हैं। गोलिकाकार प्रोटीन के अणु के मध्य दुर्बल अंतराअणुक बल होता है। जिस कारण यह प्रोटीन जल में विलेय होते हैं।

उदाहरण – हार्मोंस (इंसुलिन तथा थायरोग्लोव्युलिन) एंटिवाडीज, हिमोग्लोबिन, एल्ब्यूमिन आदि गोलिकाकार प्रोटीन के सामान्य उदाहरण हैं।

प्रोटीन का महत्व

प्रोटीन हमारे शरीर की वृद्धि के लिए एक आवश्यक अवयव है। जब हम बीमार होते हैं तो कोशिकाओं और ऊतकों में सुधार के लिए शरीर को ऐमीनो अम्ल की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि यह तो हम जानते ही हैं कि आवश्यक ऐमीनो अम्ल का संश्लेषण शरीर द्वारा नहीं होता है। अतः इन्हें हमें भोजन में प्रोटीन के रूप में लेना पड़ता है। प्रोटीन रक्त के pH को भी नियंत्रण बनाए रखता हैं।

प्रोटीन के कार्य

  • प्रोटीन शरीर की संरचना एवं वृद्धि में मुख्य भाग लेते हैं।
  • हार्मोन तथा एंजाइम का संश्लेषण प्रोटीन द्वारा होता है।
  • प्रोटीन रक्त के pH पर नियंत्रण रखता है।
  • प्रतिरक्षी प्रोटीन शरीर की सुरक्षा में प्रयुक्त होता है।

प्रोटीन का विकृतिकरण

जब प्राकृतिक प्रोटीन के भौतिक गुण जैसे – ताप तथा रासायनिक गुण जैसे – pH आदि। में परिवर्तन किया जाता है तो प्रोटीन के भौतिक एवं जैविक गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है। अर्थात् प्रोटीन अपनी दैनिक सक्रियता को खो देता है। इस प्रकार प्राप्त प्रोटीन को विकृतिकृत प्रोटीन तथा इस प्रक्रिया को प्रोटीन का विकृतिकरण कहते हैं। इस प्रक्रिया में प्रोटीन के भौतिक एवं जैविक गुणों में उसके रसायनिक संगठन को प्रभावित किए बिना ही परिवर्तन हो जाता है।

प्रोटीन का परीक्षण

  • प्रोटीन को सांद्र नाइट्रिक अम्ल HNO3 के साथ गर्म करने पर यह पीला रंग देती है। इसे जैंथोप्रोटिक परीक्षण कहते हैं।
  • पेप्टाइड बंध युक्त यौगिक (प्रोटीन) में कॉपर सल्फेट का तनु विलयन डालने पर यह लाल अथवा बैगनी रंग उत्पन्न करता है।

सुक्रोज

यह एक डाइसैकेराइड यौगिक है। गन्ना, सुक्रोज का मुख्य स्रोत है। यह एक अनअपचायी शर्करा है। सुक्रोज का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन में लगभग हर रोज ही करते हैं।

सुक्रोज जल अपघटन पर समान मात्रा में ग्लूकोस तथा फ्रुक्टोज देता है।

सुक्रोज को गन्ने के रस द्वारा प्राप्त किया जाता है। एवं इसे शीरे से भी प्राप्त किया जाता है।

सुक्रोज के गुण

  • सुक्रोज रंगहीन, गंधहीन एवं मीठे स्वाद का क्रिस्टलीय पदार्थ होता है।
  • इसका गलनांक 185°C होता है। अर्थात 185°C ताप से अधिक पर गर्म करने पर यह पिघलकर द्रव बन जाता है। एवं ठंडा करने पर पुनः ठोस बन जाता है।
  • सुक्रोज पानी में अत्यधिक विलेय होता है। परंतु यह एल्कोहल में अविलेय होता है।
  • सुक्रोज डाई मेथिल सल्फेट से क्षार की उपस्थिति में क्रिया करके ऑक्टामेथिल सुक्रोज बनाता है।
  • सुक्रोज अन्य सभी शर्कराओं से मीठा होता है परंतु यह फ्रुक्टोज से कम मीठा होता है।
  • सांद्र HNO3 सुक्रोज को ऑक्सैलिक अम्ल में ऑक्सीकृत कर देता है।

सुक्रोज के उपयोग

  • प्रयोगशाला में ऑक्सैलिक अम्ल के निर्माण में।
  • खाद्य पदार्थों को मीठा करने में।
  • फलों के उत्पादों को संरक्षित करने में सुक्रोज प्रयोग होती है।

लेक्टोज

लेक्टोज सभी स्तनधारियों के दूध में पाया जाता है। जिस कारण इसे दुग्ध शर्करा भी कहते हैं। लेक्टोज केवल जंतुओं में ही पाया जाता है यह पौधों में नहीं पाया जाता है। यह एक अपचायी शर्करा है।

लेक्टोज जल अपघटन पर मोनोसैकेराइड के दो अणु देता है ग्लूकोज और गैलेक्टोज।

स्टार्च

यह वनस्पति जगत में सर्वाधिक मात्रा में पाए जाने वाला कार्बोहाइड्रेट है। स्टार्च मनुष्यों के लिए आहार का मुख्य स्रोत है। यह पौधों में मुख्य संग्रहित पॉलिसैकेराइड है। स्टार्च को एमाइलम भी कहते हैं। यह α-ग्लूकोज का बहुलक होता है।

स्टार्ट संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

  • स्टार्च, डाइस्टेस एंजाइम की उपस्थिति में जल अपघटन द्वारा माल्टोस डाइसैकेराइड बनाता है।
  • स्टार्च को 200-250°C ताप पर गर्म करने पर यह एक कम अणुभार वाले कार्बोहाइड्रेट डेक्सिट्रन में परिवर्तित हो जाता है। एवं अधिक ताप पर और गर्म करने पर यह काला पड़ जाता है।
  • स्टार्च, आयोडीन विलयन के साथ अभिक्रिया करके गहरा नीला रंग देता है।
  • स्टार्च सफेद रंग का, स्वादहीन अक्रिस्टलीय चूर्ण होता है।
  • यह जल में अविलेय होता है।
  • स्टार्च में ऐमिलोस तथा एमाइलॉपेक्टिन दो पॉलिसैकेराइड पाए जाते हैं।

ग्लाइकोजन

यह एक पॉलिसैकेराइड है जो शरीर में आरक्षित ग्लूकोस का कार्य करता है। जिस कारण ग्लाइकोजन को जंतु स्टार्च भी कहते हैं। यह ग्लूकोस का एक बहुलक है। ग्लाइकोजन जंतु एवं मानव में कार्बोहाइड्रेट के रूप में संग्रहित रहता है। इसकी संरचना एमाइलॉपेक्टिन के समान होती है एवं यह एमाइलॉपेक्टिन से अधिक शाखित होता है। इसे प्राणी स्टार्च भी कहते हैं। ग्लाइकोजन कवक तथा यीस्ट में पाया जाता है।

सैलूलोज

सैलूलोज मुख्य रूप से पौधों में पाया जाता है। यह एक पॉलिसैकेराइड है यह वनस्पति जगत में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाला कार्बनिक पदार्थ है। सैलूलोज, β-ग्लूकोस का एक बहुलक है। यह काष्ट, कपास के बीज, जूट, पटसन आदि में पाया जाता है। कपास शुद्ध सैलूलोज का एक उदाहरण है। यह एक अनअपचायी शर्करा है।

सैलूलोज संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

  • सेल्यूलोज, रंगहीन अक्रिस्टलीय पदार्थ है।
  • यह जल में अविलेय होता है।
  • यह इस प्रकार का कार्बोहाइड्रेट है जो मनुष्य के पाचन तंत्र द्वारा नहीं पचता है।
  • सांद्र H2SO4 एवं ठंडे जल के साथ सैलूलोज की अभिक्रिया कराने पर यह फूल जाती है तथा बाद में घुल जाती है। यह तनु काॅस्टिक क्षारो के साथ कोई अभिक्रिया नहीं करता है।
  • घास चरने वाले जंतुओं के शरीर में सेलुलोज का पाचन हो जाता है। क्योंकि इनमें आवश्यक एंजाइम की उपस्थिति होती है।
  • सैलूलोज एक अनअपचायी शर्करा है जो खोखले रेशों के रूप में पाया जाता है।
  • इसका उपयोग गन कॉटन विस्फोटक तथा कपड़े उद्योग में किया जाता है।
  • यह मेथिल सैलूलोज, एथिल सैलूलोज तथा सैलूलोज एसीटेट के निर्माण में प्रयोग किया जाता है।
  • सैलूलोज कृत्रिम रेशम एवं पेंट निर्माण में भी प्रयोग किया जाता है।

फ्रुक्टोज

फ्रुक्टोज ग्लूकोस के साथ मीठे फलों तथा शहद में पाया जाता है। फ्रुक्टोज प्रकृति में मुफ्त अथवा संयुक्त दोनों अवस्थाओं में पाया जाता है इसी कारण इसे फल शर्करा भी कहते हैं। फ्रुक्टोज का रसायनिक सूत्र C6H12O6 होता है। इनुटिन, फ्रुक्टोज का एक बहुलक है।

फ्रुक्टोज बनाने की विधि

  1. प्रयोगशाला विधि :- प्रयोगशाला में फ्रुक्टोज को इक्षु शर्करा से तनु सल्फ्यूरिक अम्ल के जल अपघटन द्वारा प्राप्त किया जाता है।
जैव अणु

इस प्रकार ग्लूकोस तथा फ्रुक्टोज का मिश्रण प्राप्त होता है। जिसे निम्न पदों द्वारा फ्रुक्टोज में परिवर्तित करते हैं।

  1. प्राप्त मिश्रण को BaCO3 से क्रिया कराते हैं। ताकि मिश्रण से अम्ल के आधिक्य दाब को समाप्त किया जा सके।
  2. अब प्राप्त मिश्रण को बर्फ से ठंडा करके कैल्शियम हाइड्रोक्साइड [Ca(OH)2] मिलाया जाता है। जिससे कैल्शियम फ्रुक्टोसेट तथा कैल्सियम ग्लूकोसेट प्राप्त होते हैं।
  3. अब कैल्शियम फ्रुक्टोसेट को छानकर अलग कर लेते हैं एवं इसमें जलीय निलंबन में CO2 प्रवाहित करते हैं। जिससे फ्रुक्टोज प्राप्त होता है।

फ्रुक्टोज के भौतिक गुण

  • फ्रुक्टोज रंगहीन, क्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है।
  • यह जल में अत्यधिक विलेय है परंतु एल्कोहल में अल्प विलेय एवं ईथर व बेंजीन में अविलेय है।
  • इस का गलनांक 102°C (375K) होता है।

फ्रुक्टोज के रासायनिक गुण

  1. फ्रुक्टोज, सोडियम अमलगम तथा जल से अपचयित होकर सॉर्बिटोल तथा मैनीटोल का मिश्रण देता है।
जैव अणु

फ्रुक्टोज में छः कार्बन परमाणु एक सीधी श्रंखला में होते हैं इसकी संरचना बिल्कुल ग्लूकोस के समान ही होती है। क्योंकि इन दोनों के अणु सूत्र समान है।

फ्रुक्टोज के उपयोग

  • फ्रुक्टोज का मुख्य उपयोग चीनी के स्थान पर किया जाता है।
  • टाफियों को मीठा करने में इसका प्रयोग होता है।
  • औषधियों की सिरप के निर्माण में फ्रुक्टोज का उपयोग होता है।

ग्लूकोज

ग्लूकोज पृथ्वी पर सबसे अधिक मात्रा में पाए जाने वाला कार्बनिक यौगिक है। यह प्रकृति में मुफ्त अथवा संयुक्त दोनों अवस्थाओं में पाया जाता है। ग्लूकोस मीठे फल तथा शहद में अधिक मात्रा में उपस्थित होता है। अंगूरों में लगभग 20-30 प्रतिशत मात्रा तक ग्लूकोज होता है। यह जल में विलेय होता है जबकि ईथर में यह अविलेय है। ग्लूकोस का अणु सूत्र C6H12O6 होता है।

ग्लूकोज बनाने की विधि 

  • प्रयोगशाला विधि :- प्रयोगशाला में ग्लूकोज को गन्ने की शर्करा (सुक्रोज) के तनु HCl अथवा H2SO4 के साथ जल अपघटन करने पर ग्लूकोज तथा फ्रुक्टोज समान मात्रा में प्राप्त होता है।

ग्लूकोस के भौतिक गुण

  • ग्लूकोस रंगहीन, क्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है।
  • यह जल में विलेय होता है। परंतु एल्कोहल में अल्प विलेय एवं ईथर व बेंजीन में अविलेय होता है।
  • यह स्वाद में मीठा होता है।
  • ग्लूकोस का गलनांक 146°C होता है।

ग्लूकोस के रासायनिक गुण

  • ग्लूकोज हाइड्रोजन के साथ अपचयित होकर सॉर्बिटोल का निर्माण करता है।
जैव अणु

यह दोनों संरचनाएं एक जैसी है। हमने दोनों प्रकार आपको समझाने के लिए लिखे हैं। ताकि आप अलग प्रकार देखकर कंफ्यूज ना हो जाए।

ग्लूकोस एक पॉलीहाइड्रोक्सी एल्डिहाइड है। इसके एक अणु में छः कार्बन परमाणु उपस्थित होते हैं। एवं इसमें पांच हाइड्रोक्सिल समूह (-OH) तथा एक एल्डिहाइड समूह (-CHO) होता है। इसलिए ही ग्लूकोस कार्बनिक समूह, हाइड्रोक्सिल समूह तथा एल्डिहाइड समूह के गुण प्रदर्शित करता है।

जैव अणु

इन दोनों में बस राइट साइड वाले H और OH में ऊपर नीचे का अंतर है। बाकी सब एक जैसा ही है चक्रीय संरचना से संबंधित चित्र ही पूछा जाता है। इसलिए आप इसके चित्र को समझें।

ग्लूकोज के उपयोग

  • ग्लूकोज का प्रमुख उपयोग औषधियों के निर्माण में किया जाता है।
  • ऐल्कोहॉल के निर्माण में
  • विटामिन -C के संश्लेषण में
  • फलों के परिरक्षण में ग्लूकोस का उपयोग होता है।

कार्बोहाइड्रेट

कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन से बने यौगिकों को कार्बोहाइड्रेट कहते हैं।
कार्बोहाइड्रेट मुख्यतः पौधों द्वारा प्राप्त किया जाता है। इन का सामान्य सूत्र Cx(H2O)y होता है। जहां x और y पूर्णांक हैं जिनका मान समान अथवा भिन्न हो सकता है। कार्बोहाइड्रेट सभी जीवों में पाए जाते हैं।
उदाहरण – ग्लूकोज, फ्रेटोस, स्टार्च, सुक्रोज आदि प्रकृति में पाए जाने वाले कार्बोहाइड्रेट हैं।
चूंकि कार्बोहाइड्रेट में एल्डिहाइड तथा कीटोन समूह उपस्थित होते हैं। तब इन्हें इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है–
“वह कार्बनिक योगिक जो जल अपघटन परपोली हाइड्रोक्सी एल्डिहाइड एवं पॉलीहाइड्रों क्रिकेट ऑन देते हैं उन्हें कार्बोहाइड्रेट कहते हैं।”

कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण (प्रकार)

कार्बोहाइड्रेट को रासायनिक गुणों के आधार पर अर्थात् जल अपघटन में व्यवहार के आधार पर निम्न तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है।

  • मोनोसैकेराइड
  • ओलिगोसैकेराइड
  • पॉलिसैकेराइड
  1. मोनोसैकेराइड :- वह यौगिक जो जल अपघटन द्वारा पुनः कार्बोहाइड्रेट में अपघटित नहीं होते हैं उन्हें मोनोसैकेराइड कहते हैं। इन्हें सरल यौगिकों में जल अपघटित नहीं किया जा सकता है। इनका सामान्य सूत्र (CH2O)n होता है जहां n = 3 – 7 है। ग्लूकोज, फ्रेटोस, राइबोस आदि मोनोसैकेराइड के सामान्य उदाहरण हैं।
  2. ओलिगोसैकेराइड :- वे कार्बोहाइड्रेट जो जल अपघटन पर 2 से 10 तक मोनोसैकेराइड उत्पन्न करते हैं। उन्हें ओलिगोसैकेराइड कहा जाता है। जल अपघटन द्वारा प्राप्त मोनोसैकेराइड की संख्या के आधार पर ओलिगोसैकेराइड को निम्न श्रेणियों में बांटा गया है।
  • डाई सैकेराइड
  • ट्राई सैकेराइड
  • टेट्रा सैकेराइड
  1. डाई सैकेराइड :- वे कार्बोहाइड्रेट जो जल अपघटन पर दो मोनोसैकेराइड इकाइयों का निर्माण करते हैं। डाई सैकेराइड कहलाते हैं। इससे प्राप्त मोनोसैकेराइड समान अथवा भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। जैसे सुक्रोज (C12H22O11), माल्टोज (C12H22O11) तथा लेक्टोज (C12H22O11) आदि।
  2. ट्राई सैकेराइड :- वे कार्बोहाइड्रेट जो जल अपघटन पर तीन मोनोसैकेराइड इकाइयों का निर्माण करते हैं। ट्राई सैकेराइड कहलाते हैं। इससे प्राप्त मोनोसैकेराइड समान अथवा भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। जैसे – रेफिनोज (C18H22O16) ट्राई सैकेराइड का उदाहरण है।
  3. टेट्रा सैकेराइड :- वे कार्बोहाइड्रेट जो जल अपघटन पर चार मोनोसैकेराइड इकाइयों का निर्माण करते हैं। टेट्रा सैकेराइड कहलाते हैं। इससे प्राप्त मोनोसैकेराइड समान अथवा भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। जैसे – स्टैकाईरोस (C24H42O21) टेट्रा सैकेराइड का सामान्य उदाहरण है।
  1. पॉलिसैकेराइड :- वे कार्बोहाइड्रेट जो जल अपघटन पर अत्यधिक संख्या में मोनोसैकेराइड का निर्माण करते हैं पॉलिसैकेराइड कहलाते हैं। पॉलिसैकेराइड स्वाद में मीठे नहीं होते हैं। तथा यह जल में अविलेय होते हैं।

उदाहरण – स्टार्च, सैलूलोज, ग्लाइकोजन आदि पॉलिसैकेराइड के सामान्य उदाहरण हैं।

Note –

कार्बोहाइड्रेट को स्वाद के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया जा सके है।

  • शर्करा
  • अशर्करा
  1. शर्करा :- वे कार्बोहाइड्रेट जो स्वाद में मीठे होते हैं। उन्हें शर्करा कहते हैं। जैसे – ग्लूकोस, फ्रुक्टोज, सुक्रोज तथा लेक्टोस आदि। शर्कराएं जल में विलेय होती हैं।
  2. अशर्करा :- वे कार्बोहाइड्रेट जो स्वाद में मीठे नहीं होते हैं। उन्हें अशर्करा कहते हैं। जैसे – स्टार्च, सेल्यूलोस आदि। अशर्कराएं जल में अल्प विलेय (या विलेय) होती हैं।
  • कार्बोहाइड्रेट को अपचयन व्यवहार के आधार पर अपचायी शर्करा एवं अनअपचायी शर्करा में बांटा गया है।

अपचायी शर्करा :- वह सभी कार्बोहाइड्रेट जो फेलिंग विलयन तथा टालेन अभिकर्मक को अपचयित कर देते हैं। उन्हें अपचायी शर्करा कहा जाता है।

अनअपचायी शर्करा :- वे कार्बोहाइड्रेट जो फेलिंग विलयन तथा टालेन अभिकर्मक को अपचयित कर देते हैं। उन्हें अनअपचायी शर्करा कहा जाता है। जैसे – सुक्रोज

कार्बोहाइड्रेट के कार्य

  • कार्बोहाइड्रेट पौधों में कोशिका भित्ति का निर्माण करते हैं।
  • यह वनस्पति में स्टार्च एवं जंतुओं में ग्लाइकोजन के रूप में खाद्य पदार्थों की भांति कार्य करते हैं।
  • कार्बोहाइड्रेट को देह ईंधन कहते हैं चूंकि यह जंतु एवं मानव में जीवन के लिए आवश्यक होते हैं।

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