अध्याय 5

कक्षा 12 Science रसायन विज्ञान अध्याय 5

पृष्ठ रसायन

पृष्ठ रसायन

रसायन विज्ञान की वह शाखा, जिसके अंतर्गत हम ठोस पदार्थों की पृष्ठों पर होने वाले भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन एवं उनकी प्रकृति का अध्ययन करते हैं।

जैसे – पदार्थ की सतह पर रंग की परत का लगना, लोहे की पृष्ठ पर जंग लगना आदि।

संगुणित कोलाइड (मिसेल)

कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जो कम सांद्रता पर सामान्य प्रबल विद्युत अपघट्य की तरह व्यवहार करते हैं परंतु अधिक सांद्रता पर कणों के संगुणन के कारण कोलाइड के समान ही गुण प्रदर्शित करते हैं। जिन्हें संगुणित कोलाइड कहा जाता है। एवं इस प्रकार प्राप्त संगुणित कोलाइड को मिसेल कहते हैं।

मिशेल का निर्माण

साबुन उच्च वसीय अम्ल जैसे पामिटिक अम्ल (C15H31COOH), स्टिऐरिक अम्ल (C17H35COOH) के सोडियम या पोटेशियम लवण होते हैं। जिन्हें क्रमशः RCOONa या RCOOK से दर्शाया जाता है। जहां R लंबी श्रंखला के एल्किल समूह को व्यक्त करता है।
जब साबुन को जल में घोला जाता है तो यह आयनीकृत हो जाता है। तथा RCOO एवं Na+ का निर्माण करते हैं।
RCOONa  RCOO + Na+

RCOO के दो भाग होते हैं। एक भाग ध्रुवीय होता है। जो जल में अविलेय परंतु तेल में विलेय होता है। यह भाग संगुणित होकर मिशेल का निर्माण करते हैं।
इस प्रकार साबुन का एक मिशेल एक ऋणावेशित कोलाइडी कण है। इसमें ध्रुवीय भाग मिसेल से बाहर की ओर जाते हैं। जबकि अध्रुवीय भाग मिसेल के अंदर की ओर व्यवस्थित रहते हैं। क्योंकि मिशेल की सतह पर उपस्थित समूह आयनों के द्वारा घिरा होता है।

पायस

वह कोलाइडी विलयन जिसमें परिक्षिप्त प्रावस्था तथा परिक्षेपण माध्यम दोनों ही द्रव होते हैं तो इस प्रकार बने कोलाइडी विलयन को पायस कहते हैं। इसे इमल्शन भी कहते हैं।

साधारण भाषा में कहें तो, द्रव के द्रव में परिक्षेपण को पायस कहते हैं।

पायस के उदाहरण

  • दूध, क्रीम आदि पायस के उदाहरण हैं।
  • दूध एक ऐसा पायस है जिसमें द्रव व वसा के कण जल में परिक्षिप्त अवस्था में रहते हैं।

पायस के प्रकार

परिक्षिप्त प्रावस्था के आधार पर पायस दो प्रकार के होते हैं।

  • तेल का जल में परिक्षेपण
  • जल का तेल में परिक्षेपण
  • तेल का जल में परिक्षेपण :- जब परिक्षिप्त प्रावस्था में तेल तथा परिक्षेपण माध्यम के रूप में जल होता है। तो इसे तेल का जल में परिक्षेपण कहते हैं।

इसे जल में तेल प्रकार का पायस भी कहते हैं। इसे O/ W से प्रदर्शित करते हैं।

उदाहरण – इसका सबसे प्रमुख उदाहरण दूध है चूंकि दूध में वसा के कण जल में परिक्षिप्त रहते हैं। अन्य वैनिशिंग क्रीम आदि इसके सामान्य उदाहरण हैं।

पृष्ठ रसायन

2. जल का तेल में परिक्षेपण :- जब परिक्षिप्त प्रावस्था में जल तथा परिक्षेपण माध्यम के रूप में तेल होता है। तो इसे जल का तेल में परिक्षेपण कहते हैं।

इसे तेल में जल प्रकार का पायस भी कहते हैं। इसे W/ O से प्रदर्शित करते हैं।

उदाहरण – मक्खन, कोल्ड क्रीम, ग्रीस, कॉड लीवर तेल आदि इसके सामान्य उदाहरण हैं।

पृष्ठ रसायन

पायसीकरण

किसी भी पायस को बनाने की क्रिया को पायसीकरण कहते हैं। पायस अल्ट्रासोनिक तरंगों द्वारा बनाया जाता है।

पायस का निर्माण

सामान्यतः पायस अस्थायी होते हैं। अतः पायस को स्थायी बनाने के लिए इनमें कुछ स्थायीकरण पदार्थ मिलाए जाते हैं जिन्हें पायसीकारक कहते हैं।

उदाहरण – साबुन, गोंद, जिलेटिन आदि पायसीकारक पदार्थों के उदाहरण हैं।

पायस के गुण

  • पायस टिंडल प्रभाव, ब्राउनी गति प्रदर्शित करते हैं।
  • तेल का जल में परिक्षेपण (O /W) पायस की विद्युत चालकता अधिक होती है। लेकिन W/ O पायस की विद्युत चालकता कम होती है।
  • तेल का जल में परिक्षेपण पायस की श्यानता कम होती है। जबकि W /O पायस की श्यानता अधिक होती है।
  • पायस विद्युत संचालन तथा स्कंदन भी प्रदर्शित करते हैं।

पायस के अनुप्रयोग

  • विभिन्न दवाइयां जैसे – लोशन, क्रीम, मलहम आदि पायस के रूप में बनाए जाते हैं। यह O /W तथा W /O दोनों प्रकार के पास होते हैं।
  • साबुन के पायसीकारक गुणों को कपड़े, बर्तन व अन्य वस्तुओं को साफ करने में प्रयोग में लाया जाता है।

कोलाइड विलयन के अनुप्रयोग (उपयोग)

  • औषधियों में 

अधिकांश औषधियां कोलाइडी प्रकृति की होती हैं। यह औषधियां अधिक प्रभावकारी होती है। एवं यह मानव शरीर के द्वारा आसानी से अवशोषित हो जाती हैं। जैसे आंख का लोशन — आर्जिराल एक सिल्वर कोलाइड है। दूधिया मैग्नीशिया एक इमल्शन है। इसका उपयोग पेट में गड़बड़ी को दूर करने में होता है। काड लीवर तेल, एंटीबायोटिक्स आदि औषधियां कोलाइड प्रकृति की होती हैं।

  1. पेयजल का शुद्धिकरण

प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त जल में अनेक प्रकार की अशुद्धियां उपस्थित होती हैं जो जल में कोलाइड कण के रूप में रहती हैं। यह कोलाइडी कण ऋणावेशित होते हैं। इस पानी को साफ करने के लिए इसमें फिटकरी (K2SO4•Al2 (SO4)2•24H2O) का प्रयोग किया जाता है। जब फिटकरी को जल में मिलाया जाता है तो एल्युमीनियम आयन (Al3+) जल में आयनित हो जाती हैं। तथा अशुद्ध कोलाइडी कणों का अवक्षेपण कर देते हैं जिससे अशुद्धियां नीचे बैठ जाती हैं और पानी पीने योग्य बन जाता है।

2. धुएं का अवक्षेपण

फैक्ट्रियों, कारखानों तथा चीनी मिलों आदि चिमनियों से निकलने वाले धुएं में कार्बन के कण उपस्थित रहते हैं। जो वायु को दूषित कर देते हैं। यह धुआं कार्बन के कणों का कोलाइडी विलयन होता है। धुएं का अवक्षेपण करने के लिए इसे कॉट्रिल अवक्षेपक से गुजारते हैं जिससे कोलाइडी कार्बन कण चिमनी पर ही रह जाते हैं एवं कार्बन से मुक्त धुआं बाहर निकल जाता है।

अन्य अनुप्रयोग

  1. रबड़ के स्कंदन में
  2. साबुन एवं अपमार्जकों के शोधन क्रिया में
  3. चर्म शोधन में
  4. रक्त के स्कंदन में
  5. फोटोग्राफी प्लेटो एवं फिल्मों में

कोलाइड के उदाहरण

  • आकाश का नीला रंग :- वायुमंडल में उपस्थित धूल के कण वायु के साथ मिलकर कोलाइडी विलयन बनाते हैं तथा यह कोलाइडी कण प्रकाश के नीले रंग का प्रकीर्णन करते हैं जिससे हमें आकाश का रंग नीला प्रतीत होता है।
    1. खाद्य सामग्री :- दूध, मक्खन, फलों का रस, आइसक्रीम आदि की प्रकृति कोलाइडी होती है।
    2. डेल्टा बनना :- नदियों के जल में धूल तथा रेत के कण मिलने से यह जल ऋणावेशित कोलाइड बन जाता है। समुद्र के जल में अनेकों प्रकार के विद्युत अपघट्य होते हैं। जब नदी का जल समुद्र के जल के संपर्क में आता है तो यह विद्युत अपघट्य नदी के जल को स्कंदित कर देते हैं। जिससे रेत के कण जमा होने लगते हैं और इनके मिलन बिंदु पर रेत इकट्ठा हो जाती है जिसे डेल्टा कहते हैं।
  • रुधिर
  • कोहरा, धुंध एवं बरसात

अपोहन

जैसा हमने कोलाइडी विलयन क्या है वाले अध्याय में पढ़ा था। कि किसी जंतु झिल्ली से क्रिस्टलाभ कण सरलता से गति कर जाते हैं। एवं कोलाइडी कण इस झिल्ली में से गमन नहीं कर पाते हैं। अतः जंतु झिल्ली के इस गुण के कारण ही इसे कोलाइडी विलयन के शुद्धिकरण में प्रयोग किया जाता है। इसी आधार पर अपोहन को परिभाषित किया जा सकता है।

“पार्चमेंट झिल्ली द्वारा कोलाइडी विलयन में से अशुद्धियों को अलग करने की विधि को अपोहन कहते हैं।”

पृष्ठ रसायन

अपोहन विधि में पार्चमेंट झिल्ली, एक थैला (बैग) चित्रानुसार ऊंचाई से जल के टैंक में लटका देते हैं। इस बैग में उपस्थित अशुद्धियां झिल्ली से बाहर निकलकर जल के साथ बह जाती हैं। एवं बैग में शुद्ध कोलाइडी विलयन रह जाता है।

विद्युत अपोहन

इस विधि में अपोहन की विधि से कम समय लगता है इसमें पार्चमेंट झिल्ली के दोनों और इलेक्ट्रोड लगा देते हैं। जब इलेक्ट्रोडों द्वारा विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है। तो बैग में उपस्थित अशुद्धियां इलेक्ट्रोडों की ओर तेजी से आकर्षित होकर जल के साथ बह जाती हैं। तथा शुद्ध कोलाइडी विलयन रह जाता है। यह प्रक्रिया विद्युत अपोहन कहलाती है।

पृष्ठ रसायन

अतिसूक्ष्म निस्पंदन

 सूक्ष्मतम निस्पंदन अथवा अतिसूक्ष्म फिल्टरन कहते हैं।

स्कंदन

विद्युत अपघट्य के विलयन द्वारा कोलाइडी विलयन को अवक्षेपित करने की प्रक्रिया को स्कंदन या अवक्षेपण कहते हैं।

हार्डी शुल्जे नियम, स्कंदन की व्याख्या करता है।

हार्डी शुल्जे नियम

  • इस नियम के दो कथन हैं।
    किसी कोलाइडी विलयन को अवक्षेपित करने के लिए विपरीत आवेशित आयनों की आवश्यकता होती है।
  • किसी आयन पर जितना अधिक आवेश होगा उसकी स्कंदन क्षमता उतनी ही अधिक होगी।

सामान संयोजकता वाले आयनों की स्कंदन क्षमता समान होती है। एवं ज्यादा संयोजकता वाले आयनों की क्षमता अधिक होती है। इससे स्पष्ट होता है कि आयनों की स्कंदन क्षमता बढ़ने पर उनकी संयोजकता बढ़ती है।
जैसे – धनायनों की स्कंदन क्षमता का क्रम
Na+ < Mg2+ < Al3+ < Sn4+
ऋणायनों की स्कंदन क्षमता का क्रम
Cl < SO42- < PO43- < [Fe(CN)6]4-

Note – 

किसी विद्युत अपघट्य के लिए स्कंदन का मान जितना कम होता है उस विद्युत अपघट्य की स्कंदन क्षमता का मान उतना ही अधिक होता है।

रक्षी कोलाइड

जब किसी द्रव विरोधी कोलाइड का द्रव स्नेही कोलाइड की उपस्थिति में विद्युत अपघट्य द्वारा स्कंदन रुक जाता है। तो उसे रक्षण कहते हैं। अर्थात् द्रव स्नेही कोलाइड, द्रव विरोधी कोलाइड की विद्युत अपघट्य द्वारा स्कंदन से रक्षा करता है रक्षी कोलाइड कहलाता है।

स्वर्ण संख्या

स्वर्ण संख्या, रक्षी कोलाइड में रक्षण प्रभाव को मापने की एक इकाई है इसके अनुसार,

किसी रक्षी कोलाइड की मिलीग्राम में वह मात्रा जो गोल्ड सोल के 10 ग्राम में 10% NaCl के 1 मिलीलीटर विलयन द्वारा स्कंदित होने से रोक देती है। स्वर्ण संख्या कहलाती है।

  • स्वर्ण संख्या का मान जितना अधिक होगा, रक्षी कोलाइड की रक्षण क्षमता उतनी ही कम होगी।
  • सबसे अधिक स्वर्ण संख्या स्टार्च (25) की होती है एवं सबसे कम स्वर्ण संख्या जिलेटिन (0.005) की होती है।

टिंडल प्रभाव

जिस प्रकार किसी अंधेरे कमरे में कोई प्रकाश स्रोत से प्रकाश डाला जाता है तो कमरे के अंदर धूल के कण प्रकाश में स्पष्ट दिखाई देते हैं। ठीक उसी प्रकार जब कोलाइडी विलयन में प्रकाश की किरण पुंज को गुजारा जाता है तथा सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्रकाश के लम्बवत विलयन को देखा जाता है। तो कोलाइडी कण अंधेरे में घूमते दिखाई देते हैं।

अतः इस प्रभाव का सबसे पहले वैज्ञानिक टिंडल ने अध्ययन किया, जिस कारण इसे टिंडल प्रभाव कहते हैं।

इस प्रभाव के अनुसार, जब प्रकाश की किसी किरण पुंज को किसी कोलाइडी विलयन में से गुजारा जाता है तथा प्रकाश की किरण पुंज को सूक्ष्मदर्शी द्वारा कोलाइडी विलयन के लम्बवत देखने पर प्रकाश की किरण पुंज का पथ एक चमकीले शंकु आकृति के रूप में दिखाई देता है। जिसे टिंडल शंकु कहते हैं। एवं इस घटना को टिंडल प्रभाव कहते हैं।

टिंडल प्रभाव का कारण कोलाइडी कणों द्वारा प्रकाश का प्रकीर्णन होता है। टिंडल प्रभाव कोलाइडी विलयन का एक गुण है।

अगर टिंडल प्रभाव को आसान शब्दों में परिभाषित करें तो इसकी परिभाषा कुछ इस प्रकार होगी।

“कोलाइडी विलयन में उपस्थित कोलाइडी कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन की घटना को टिंडल प्रभाव कहते हैं।”

पृष्ठ रसायन

टिंडल प्रभाव की घटना को चित्र द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है। प्रस्तुत चित्र में कोलाइडी विलयन में प्रकाश स्रोत (सूर्य) से प्रकाश की किरण पुंज को गुजारने पर, जब सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्रकाश की किरण पुंज को देखा जाता है। उसमें एक शंकु आकृति की प्रकाश की किरण दिखाई देती है।

टिंडल प्रभाव की शर्तें

टिंडल प्रभाव की घटना तभी संपन्न होती है जब ये निम्नलिखित शर्तें पूर्ण हो जाती हैं।

टिंडल प्रभाव की दो शर्तें हैं।

  • परिक्षिप्त कणों का आकार प्रयुक्त प्रकाश की तरंगदैर्ध्य से कम नहीं होना चाहिए।
  • परिक्षिप्त प्रावस्था एवं परिक्षेपण माध्यम के अपवर्तनांकों के बीच अंतर अधिक नहीं होना चाहिए।

टिंडल प्रभाव के उदाहरण

  1. आकाश का नीला दिखाई देना।
  2. धूम्रकेतु की पूंछ का दिखना।
  3. तारों का चमकना।
  4. अंधेरे कमरे में प्रकाश का चमकना आदि।

Note –

वास्तविक विलयनों के द्वारा टिंडल प्रभाव को प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है। चूंकि इनके कणों का आकार बहुत छोटा होता है। जिस कारण वास्तविक विलयन के कण प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं करते हैं। अर्थात कोलाइडी विलयन ही टिंडल प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं।

कोलाइडी विलयन के गुण

कोलाइडी विलयन के निम्न गुण होते हैं।

  • ब्राउनी गति
  • टिंडल प्रभाव
  • अणुसंख्यक गुण
  • विद्युतीय गुण
  • विद्युत आवेश गुण
  • स्पंदन या अवक्षेपण
  • हार्डी-शुल्जे नियम
  1. ब्राउनी गति :- कोलाइडी विलयन में कोलाइडी कणों की सभी दिशाओं में अनियमित गति को ब्राउनी गति कहते हैं।
पृष्ठ रसायन

परिक्षेपण माध्यम के कणों का लगातार कोलाइडी कणों से टकराते रहना ही ब्राउनी गति का कारण है

2. टिंडल प्रभाव :- जिस प्रकार किसी अंधेरे कमरे में कोई प्रकाश स्रोत से प्रकाश डाला जाता है तो कमरे के अंदर धूल के कण प्रकाश में स्पष्ट दिखाई देते हैं। ठीक उसी प्रकार जब कोलाइडी विलयन में प्रकाश की किरण पुंज को गुजारा जाता है तथा सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्रकाश के लम्बवत विलयन को देखा जाता है। तो कोलाइडी कण अंधेरे में घूमते दिखाई देते हैं।

अतः इस प्रभाव का सबसे पहले वैज्ञानिक टिंडल ने अध्ययन किया, जिस कारण इसे टिंडल प्रभाव कहते हैं।

3. अणुसंख्यक गुण :- वह गुण जो विलयन में उपस्थित कणों की संख्या पर निर्भर करते हैं। तो उन्हें अणुसंख्यक गुण कहते हैं। कोलाइडी विलयन भी वास्तविक विलयन की तरह ही अणुसंख्यक गुण (परासरण दाब, क्वथनांक का उन्नयन, हिमांक का अवनमन, वाष्पदाब का अपेक्षित अवनमन आदि) का पालन करता है।

4. विद्युतीय गुण :- कोलाइडी कणों पर धन तथा ऋण विद्युत आवेश होता है। किसी कोलाइडी विलयन के कोलाइडी कणों का विद्युत प्रवाह क्षेत्र में विपरीत इलेक्ट्रोड की ओर अभिगमन को विद्युत कण संचलन कहते हैं।

कोलाइडी कणों की एनोड की ओर गति को ऋण कण संचलन एवं कोलाइडी कणों की कैथोड की ओर गति को धन कण संचलन कहते हैं।

  1. विद्युत आवेश गुण :- कोलाइडी विलयन में कोलाइडी कणों पर धन अथवा ऋण विद्युत आवेश उपस्थित होता है। कोलाइडी कण एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं क्योंकि सभी कोलाइडी कणों पर विद्युत आवेश का मान समान होता है कोलाइडी कण विद्युत आवेशित होते हैं जबकि कोलाइडी विलयन विद्युत उदासीन होता है। इसका कारण यह है कि जितना आवेश कोलाइडी कणों पर होता है उतना ही विपरीत आवेश परिक्षेपण माध्यम के कणों पर उपस्थित होता है। अतः आवेश की मात्रा बराबर तथा विपरीत होने के कारण कोलाइडी विलयन विद्युत उदासीन हो जाता है।
  2. स्पंदन या अवक्षेपण :- विद्युत अपघट्य के विलयन द्वारा कोलाइडी विलयन को अवक्षेपित करने की प्रक्रिया को स्पंदन या अवक्षेपण कहते हैं।
  3. हार्डी-शुल्जे नियम :- इस नियम के दो कथन हैं।
  • किसी कोलाइडी विलयन को अवक्षेपित करने के लिए विपरीत आवेशित आयनों की आवश्यकता होती है।
  • किसी आयन पर जितना अधिक आवेश होगा उसकी स्कंदन क्षमता उतनी ही अधिक होगी।

सामान संयोजकता वाले आयनों की स्कंदन क्षमता समान होती है। एवं ज्यादा संयोजकता वाले आयनों की क्षमता अधिक होती है। इससे स्पष्ट होता है कि आयनों की स्कंदन क्षमता बढ़ने पर उनकी संयोजकता बढ़ती है।
जैसे – धनायनों की स्कंदन क्षमता का क्रम
Na+ < Mg2+ < Al3+ < Sn4+
ऋणायनों की स्कंदन क्षमता का क्रम
Cl < SO42- < PO43- < [Fe(CN)6]4-

कोलाइडी विलयन बनाने की विधियां

कोलाइडी विलयन बनाने की अनेक विधियां हैं जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण विधियां निम्न प्रकार से हैं।

  • रसायनिक विधि
  • विद्युत अपघटन या ब्रेडिंग आर्क विधि
  • पेप्टीकरण
  • रसायनिक विधि 
  1. जल अपघटन

फेरिक क्लोराइड की तनु जलीय विलयन को उबालने पर फेरिक हाइड्रोक्साइड Fe(OH)3 का कोलाइडी विलयन प्राप्त होता है।
FeCl3 + 3H2O  Fe(OH)3 + 3HCl

  1. अपचयन

यह विधि धातुओं के कोलाइडी विलयन में प्रयुक्त की जाती है। इसमें Au, Ag, Pt तथा Cu आदि धातुओं के सोल बनाए जाते हैं।
2AuCl3 + 3SnCl2  2Au + 3SnCl4

  1. ऑक्सीकरण

यह विधि अभिकारक ब्रोमीन, जल या HNO3 में हाइड्रोजन सल्फाइड H2S गैस को प्रभावित करने पर सल्फर सोल का निर्माण करती है।
H2S + Br2  S + 2HBr
H2S + 2NHO3  2NO2 + 2H2O + S

  1. ब्रेडिंग आर्क विधि :- यह विधि सोना, चांदी, प्लैटिनम तथा कॉपर आदि धातुओं के कोलाइडी विलयन बनाने में प्रयुक्त की जाती है। इस विधि में जिस धातु का कोलाइडी विलयन बनाना होता है। उस धातु की दो छड़ों को सोडियम हाइड्रोक्साइड (NaOH) के विलयन में डुबोकर पात्र को बर्फ से भरी एक टप के बीच में रखते हैं।

पात्र में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर इलेक्ट्रॉडो के मध्य विद्युत आर्क उत्पन्न हो जाता है जिससे धातु वाष्पित होकर जाती हैं एवं ठंडे जल के द्वारा बासु संगठित होकर कोलाइडी विलयन बनाती है।

ब्रेडिंग आर्क विधि में परिक्षेपण और संघनन दोनों साथ साथ होते हैं।

  • पेप्टीकरण

वह विधि जिसमें ताजे अवक्षेपित पदार्थ को किसी विद्युत अपघट्य के तनु विलयन के साथ मिलाने पर कोलाइडी विलयन बनाने की प्रक्रिया को पेप्टीकरण कहते हैं। एवं प्रयुक्त विद्युत अपघट्य को पेप्टीकारक कहते हैं।
जैसे – सिल्वर क्लोराइड (AgCl) का कोलाइडी विलयन बनाने के लिए इसके ताजे अवक्षेप में सिल्वर नाइट्रेट (AgNO3) विद्युत अपघट्य मिलाया जाता है।

द्रव स्नेही तथा द्रव विरोधी कोलाइड

  1. द्रव स्नेही कोलाइड (द्रवरागी कोलाइड)

वे पदार्थ जो द्रव अर्थात परिक्षेपण माध्यम के संपर्क में आने पर आसानी से कोलाइडी विलयन बना लेते हैं। उन्हें द्रव स्नेही अथवा द्रवरागी कोलाइड कहते हैं।

द्रवरागी कोलाइड विलयन प्रायः स्थायी होते हैं चूंकि इनमें परिक्षेपण माध्यम तथा परिक्षिप्त प्रावस्था के बीच आकर्षण बल आरोपित होता है।

उदाहरण – गोंद, स्टार्च, प्रोटीन आदि द्रव स्नेही कोलाइड के उदाहरण हैं।

द्रव स्नेही कोलाइड उत्क्रमणीय प्रकृति के होते हैं। यह विद्युत अपघट्य के विलयनों में शीघ्र ही अवक्षेपित नहीं होते हैं। अगर यह विक्षेपित हो जाते हैं तो इन्हें पुनः किसी उचित विद्युत अपघट्य के विलयन द्वारा आसानी से कोलाइडी विलयन बना लेते हैं जिस कारण इन्हें उत्क्रमणीय कोलाइड भी कहते हैं।

  • द्रव विरोधी कोलाइड (द्रवविरागी कोलाइड)

परिक्षेपण माध्यम के संपर्क में आने पर आसानी से कोलाइडी विलयन नहीं बनाते हैं। उन्हें द्रव विरोधी अथवा द्रवविरागी कोलाइड कहते हैं।

द्रव विरोधी कोलाइड विलयन अस्थायी होते हैं। चूंकि इनमें परिक्षेपण माध्यम तथा परिक्षिप्त प्रावस्था के बीच आकर्षण बल लगभग नगण्य ही होता है।

उदाहरण – सल्फर सोल, सोना सोल, प्लैटिनम सोल तथा फेरिक हाइड्रोक्साइड सोल आदि द्रव विरोधी कोलाइड के उदाहरण हैं।

द्रवविरागी कोलाइड अनुत्क्रमणीय प्रकृति के होते हैं अतः यह विद्युत अपघट्य के विलयनों द्वारा शीघ्रता से अवक्षेपित हो जाते हैं। फलस्वरुप अवक्षेपित होने के बाद इनसे पुनः कोलाइडी विलयन प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जिस कारण इन्हें अनुत्क्रमणीय कोलाइड भी कहते हैं।

द्रव स्नेही तथा द्रव विरोधी कोलाइड में अंतर

  • द्रव स्नेही कोलाइड स्थायी होते हैं जबकि द्रव विरोधी कोलाइड अस्थायी होते हैं।
  • द्रव स्नेही कोलाइड उत्क्रमणीय प्रकृति के होते हैं जबकि द्रव विरोधी कोलाइड अनुत्क्रमणीय प्रकृति के होते हैं।
  • द्रव स्नेही कोलाइड जल में शीघ्र ही अवक्षेपित नहीं होते हैं। जबकि द्रव विरोधी कोलाइड जल में शीघ्रता से अवक्षेपित हो जाते हैं।
  • द्रव स्नेही कोलाइड के कणों पर आवेश की मात्रा बहुत कम या शून्य होती है। जबकि द्रव विरोधी कोलाइड के कणों पर एक निश्चित धनात्मक या ऋणात्मक आवेश होता है।
  • गोंद, स्टार्च, प्रोटीन आदि द्रव स्नेही कोलाइड के उदाहरण हैं। जबकि सल्फर सोल, सोना सोल आदि द्रव विरोधी कोलाइड के उदाहरण है।

सोल

वह कोलाइडी विलयन जिसमें परिक्षिप्त प्रावस्था ठोस तथा परिक्षेपण माध्यम द्रव होता है। तो उस कोलाइडी विलयन को सोल कहते हैं।

सोल के उदाहरण – स्टार्च, सल्फर सोल, फेरिक हाइड्रोक्साइड सोल आदि।

कोलाइडी विलयन

  1. क्रस्टलाभ :- वह पदार्थ जिनके विलयन जंतु झिल्ली में से शीघ्रता (तेजी) से विसरित हो जाते हैं उन पदार्थों को क्रस्टलाभ कहते हैं। 

उदाहरण – नमक, कॉपर सल्फेट, चीनी, यूरिया आदि क्रस्टलाभ के उदाहरण हैं।

  1. कोलाइड :- वह पदार्थ जिनके विलयन जंतु झिल्ली में से विसरित बहुत धीरे-धीरे होते हैं। या विसरित नहीं होते हैं। उन पदार्थों को कोलाइड कहते हैं। 

उदाहरण – गोंद, शहद, रबर, स्टार्च, ग्लू तथा जिलेटिन आदि कोलाइड के उदाहरण हैं।

आधुनिक धारणा के अनुसार थॉमस ग्राहम के इस वर्गीकरण को उचित नहीं माना गया। क्योंकि क्रस्टलाभ तथा कोलाइड एक ही पदार्थ की दो अवस्थाएं हैं। जिनमें भिन्नता का कारण कणों का आकार है।

अतः कणों के आकार के अनुसार इसे तीन भागों में बांटा गया है।

  • वास्तविक विलयन
  • निलंबन
  • कोलाइडी विलयन
  1. वास्तविक विलयन :- ऐसे विलयन जिनमें विलेय के कणों का आकार 1 nm (10 Å) से छोटा होता है। तो इस प्रकार के विलयनों को वास्तविक विलयन कहते हैं। वास्तविक विलयन समांगी प्रकृति के होते हैं। एवं इनके कणों को सूक्ष्मदर्शी की सहायता से नहीं देखा जा सकता है।

उदाहरण – नमक का पानी में विलयन, यूरिया का जल में विलयन आदि।

  1. निलम्बन :- ऐसे विलयन जिनमें विलेय के कणों का आकार 10-6 मीटर (10-4cm) से अधिक होता है। तो इस प्रकार के विलयनों को निलम्बन कहते हैं। निलम्बन विषमांगी प्रकृति के होते हैं। एवं इनके कणों को आंख या सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा जा सकता है।

उदाहरण – जल में बालु (रेत) का निलम्बन।

  1. कोलाइडी विलयन :- ऐसे विलयन जिनमें विलेय के कणों का आकार 10-5 से 10-7 सेमी 

(10-7-10-9m) के मध्य होता है। तो इस प्रकार के विलयनों को कोलाइडी विलयन कहते हैं।

कोलाइडी विलयन विषमांगी प्रकृति के होते हैं। एवं इन्हें सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा जा सकता है।

उदाहरण – दूध, दही, धुआं, कोहरा, मानव रक्त आदि कोलाइडी विलियन के उदाहरण हैं।

कोलाइडी विलयन, वास्तविक विलयन तथा निलंबन के मध्य के होते हैं। इसी आधार पर कोलाइडी विलयनों को दो भागों में बांटा गया है। अथवा कोलाइडी विलयन की दो प्रावस्थाएं होती है।

  • परिक्षिप्त प्रावस्था
  • परिक्षेपण माध्यम
  1. परिक्षिप्त प्रावस्था :- कोलाइडी विलियन का वह भाग जिसके कणों का आकार 10-5 – 10-7cm के मध्य होता है। अर्थात जो कोलाइडी कणों का निर्माण करते हैं। उन्हें परिक्षिप्त प्रावस्था कहते हैं।

अतः ऐसे भी कह सकते हैं कि विलेय के कणों की अवस्था को परिक्षिप्त प्रावस्था कहते हैं।

  1. परिक्षेपण माध्यम :- कोलाइडी विलियन का वह भाग जिसके कणों का आकार 10-7 – 10-8cm के मध्य होता है। अर्थात जिनमें कोलाइडी कण विसरित रहते हैं। उन्हें परिक्षेपण माध्यम कहते हैं।

अतः ऐसे भी कह सकते हैं कि विलायक के कणों की अवस्था को परिक्षेपण माध्यम कहते हैं।

एंजाइम उत्प्रेरक

एंजाइम उच्च अणुभार के नाइट्रोजन युक्त जटिल कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो जीव-जंतुओं की जीवित कोशिकाओं में पाए जाते हैं। चूंकि यह पदार्थ जीव रसायनिक अभिक्रियाओं में उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। इसलिए इन्हें जीव रसायनिक उत्प्रेरक भी कहते हैं। एवं इस घटना को एंजाइम उत्प्रेरण कहते हैं।

यह जैसे ही जल के संपर्क में आते हैं तभी यह कोलाइडी विलयन बना देते हैं। एवं कोलाइडी विलयन बनाकर यह एक प्रभावी उत्प्रेरक का कार्य करते हैं एंजाइम उत्प्रेरण विषमांगी उत्प्रेरण ही होते हैं।

एंजाइम उत्प्रेरक के उदाहरण

  1. सुक्रोस से ऐल्कोहॉल बनाने की क्रिया दो पदों में पूर्ण होती है इस अभिक्रिया के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के एंजाइम उत्प्रेरण भाग लेते हैं।

C12H22O11+H2O+  इन्वैटेज      C6H12O6+C6H12O6

                  सुक्रोस                     एंजाइम     ग्लूकोस       फ्रक्टोज़          

C6H12O6     एंजाइम        2C2H5OH+2CO2

                                                    मैथिल एलकोहॉल

एंजाइम उत्प्रेरक के गुण (लक्षण)

  • एंजाइम जीवित कोशिकाओं में उत्पन्न होते हैं तथा रासायनिक रूप से ये प्रोटीन हैं।
  • एंजाइम केवल एक विशेष अभि को ही उत्प्रेरित करता है अन्य किसी अभिक्रिया को नहीं करता है।
  • कुछ एंजाइम पदार्थ मनुष्य के लिए विषैले हैं जैसे KCN, CS2 तथा H2S आदि ये एंजाइम, उत्प्रेरक विष का कार्य करते हैं।
  • एंजाइम की सूक्ष्म मात्रा ही अभिक्रिया को उत्प्रेरित कर देती है।
  • एंजाइम उत्प्रेरक के लिए माध्यम का pH मान 6 – 8 के बीच ही होना चाहिए।

एंजाइम उत्प्रेरण के उपयोग

  1. गन्ने की शक्कर से ग्लूकोस का निर्माण करने में।
  2. एथिल ऐल्कोहॉल से एसिटिक अम्ल के निर्माण में।
  3. एंजाइम उत्प्रेरक जीवित कोशिकाओं में पाए जाते हैं। जबकि अन्य उत्प्रेरक निर्जीव पदार्थों में पाए जाते हैं।

उत्प्रेरक

वह पदार्थ जो किसी रसायनिक अभिक्रिया को परिवर्तित कर देता है परंतु स्वयं गुण तथा भार की दृष्टि से अभिक्रिया में रासायनिक रूप से अपरिवर्तित रहता है। उसे उत्प्रेरक कहते हैं।

एवं इस परिघटना को उत्प्रेरण कहते हैं।

उत्प्रेरक के उदाहरण

KClO3 के विलयन से O2 के निर्माण में MnO2 एक उत्प्रेरक का कार्य करता है।

2KClO3+[MnO2] 270°C      2KCl+3O2+[MnO2] अभिकारक            उत्पेरक                         उत्पाद                उत्पाद           उत्पेरक

उत्प्रेरक के लक्षण-

  1. उत्प्रेरक अभिक्रिया के अंत में रासायनिक रूप से अपरिवर्तित रहता है।
  2. उत्प्रेरक की बहुत कम मात्रा ही अभिक्रिया को प्रेरित करने में सहायक होती है।
  3. अभिक्रिया का प्रारंभ उत्प्रेरक नहीं करता है यह केवल अभिक्रिया को उत्प्रेरित करता है।
  4. उत्प्रेरक अभिक्रिया की साम्य अवस्था को प्रभावित नहीं करता है।
  5. उत्प्रेरकों की प्रकृति विशिष्ट होती है।

उत्प्रेरण का वर्गीकरण

भौतिक अवस्था के आधार पर उत्प्रेरण को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।

  • समांगी उत्प्रेरण
  • विषमांगी उत्प्रेरण
  1. समांगी उत्प्रेरण :- जब उत्प्रेरक तथा अभिकारक एक ही अवस्था में स्थित होते हैं। तो इस उत्प्रेरक को समांगी उत्प्रेरक कहते हैं। एवं इस घटना को समांगी उत्प्रेरण कहते हैं।

उदाहरण –

                2SO2           +         O2 + NO               2SO3+NO

                  अभिकारक                          अभिकारक     उत्पेरक                                उत्पाद           उत्पेरक

     

इस उदाहरण में दोनों अभिकारक गैस अवस्था में हैं एवं उत्प्रेरक [NO] भी गैस अवस्था में है जिस कारण यह एक समांगी उत्प्रेरण का उदाहरण है।

  1. विषमांगी उत्प्रेरण :- जब उत्प्रेरक तथा अभिकारक भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में होते हैं तो इस उत्प्रेरक को विषमांगी उत्प्रेरक कहते हैं एवं इस घटना को विषमांगी उत्प्रेरण कहते हैं।

उदाहरण –

N2              +              3H2              +    Fe     →     2NH3  +  Fe

    अभिकारक                                          अभिकारक                      उत्पेरक                            उत्पाद             उत्पेरक     

       

यहां दोनों अभिकारक N2 तथा H2 गैस अवस्था में है जबकि उत्प्रेरक [Fe] ठोस अवस्था में है। अतः यह भिन्न है जिस कारण यह विषमांगी उत्प्रेरण का उदाहरण है।

Note –

क्रियाविधि के आधार पर उत्प्रेरण निम्न प्रकार के होते हैं।

  • स्व उत्प्रेरण
  • प्रेरित उत्प्रेरण
  1. स्व उत्प्रेरण :- जब किसी रसायनिक अभिक्रिया में कोई उत्पाद स्वयं उत्प्रेरक का कार्य करता है तो वह स्व उत्प्रेरक कहलाता है एवं इस परिघटना को स्व उत्प्रेरण कहते हैं।

उदाहरण –

CH3COOC2H5+H2O      →    CH3COOH    +    C2H5OH

                                                                              सव्व उत्पेरक    

इस अभिक्रिया में मेथेनॉइक (CH3COOH) स्वयं उत्प्रेरक का कार्य करने लगता है। जिसके कारण अभिक्रिया का वेग बढ़ जाता है।

  1. प्रेरित उत्प्रेरण :- जब एक रसायनिक अभिक्रिया किसी दूसरी रसायनिक अभिक्रिया के लिए उत्प्रेरक का कार्य करती है तो इस परिघटना को प्रेरित उत्प्रेरण कहते हैं।

उदाहरण –

Na2AsO3 का वायु में ऑक्सीकरण नहीं होता है। परंतु Na2SO3 का वायु में ऑक्सीकरण हो जाता है। लेकिन जब इन दोनों के मिश्रण को वायु में प्रवाहित किया जाता है तो सोडियम आर्सेनाइट Na2AsO3 का सोडियम आर्सेनेट के कारण ऑक्सीकरण हो जाता है।

उत्प्रेरक वर्धक तथा उत्प्रेरक विष

उत्प्रेरक वर्धक

वे पदार्थ जो किसी अभिक्रिया में प्रयुक्त उत्प्रेरक की क्रियाशीलता को बढ़ा देते हैं। परंतु स्वयं उत्प्रेरक का कार्य नहीं करते हैं उत्प्रेरक वर्धक कहलाते हैं।

उदाहरण –

मैथिल ऐल्कोहॉल के बनने में ZnO उत्प्रेरक होता है लेकिन Cr2O3 उत्प्रेरक वर्धक का कार्य करता है।

उत्प्रेरक विष

यह तो नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह विष (जहर) का कार्य करता है वास्तव में इसका कार्य ऐसा ही है।

वे पदार्थ जो किसी अभिक्रिया में प्रयुक्त उत्प्रेरक की क्रियाशीलता को कम या नष्ट कर देते हैं उत्प्रेरक विष कहलाते हैं।

उदाहरण –

SO3 के निर्माण में प्लेटिनम (Pt) उत्प्रेरक है लेकिन इसमें As2O3 उत्प्रेरक विष का कार्य करता है।

अधिशोषण के प्रकार

अधिशोषण क्या है इसके बारे में हम पिछले लेख में पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत लेख में अधिशोषण के प्रकार के बारे में हम पूर्ण अध्ययन करेंगे।

अधिशोषण दो प्रकार के होते हैं।

  • भौतिक अधिशोषण
  • रासायनिक अधिशोषण
  1. भौतिक अधिशोषण :- जब अधिशोषक की सतह तथा अधिशोषित पदार्थ के मध्य दुर्बल वांडरवाल बल होता है तो यह भौतिक अधिशोषण कहलाता है।

जैसे – तख्ते पर स्याही से लिखने पर स्याही का अवशोषण एक भौतिक अधिशोषण का उदाहरण है।

भौतिक अवशोषण ताप के बढ़ने पर बढ़ता है चूंकि इसके मध्य दुर्बल वांडरवाल बल होता है।

भौतिक अधिशोषण के प्रमुख लक्षण

  • ताप का प्रभाव :- ताप वृद्धि करने पर भौतिक अधिशोषण में कमी आ जाती है क्योंकि ताप वृद्धि करने पर वांडरवाल बल प्रबल होने लगते हैं।
  • दाब का प्रभाव :- दाब में वृद्धि करने पर भौतिक अधिशोषण में भी वृद्धि होती है।
  • उत्क्रमणीय प्रकृति :- भौतिक अधिशोषण एक उत्क्रमणीय प्रक्रम है। अतः किसी ठोस सतह पर अधिशोषित गैस को, ताप में वृद्धि करके या दाब में कमी करके सरलता से सतह से पृथक किया जा सकता है।
  1. रासायनिक अधिशोषण (रसोवशोषण) :- अधिशोषण की सतह पर अधिशोषित पदार्थ रसायनिक बंधों द्वारा बंधे रहते हैं। तो यह रासायनिक अधिशोषण कहलाता है। तथा इसे रसोवशोषण भी कहते हैं।

जैसे – पोलेडियम Pd की सतह पर हाइड्रोजन का अधिशोषण, रासायनिक अधिशोषण का एक उदाहरण है।

रासायनिक अधिशोषण के लक्षण

  • ताप का प्रभाव :- ताप वृद्धि करने पर रासायनिक अधिशोषण में पहले वृद्धि होती है परंतु बाद में कमी होने लगती है।
  • अनुत्क्रमणीय प्रकृति :- रासायनिक अधिशोषण एक अनुत्क्रमणीय प्रक्रम है यही रासायनिक अधिशोषण में यौगिक बनने का कारण है। क्योंकि रसोवशोषण एक ऊष्माक्षेपी प्रक्रम है।
  • पृष्ठीय क्षेत्रफल :- भौतिक अधिशोषण के समान ही रासायनिक अधिशोषण भी पृष्ठीय क्षेत्रफल पर निर्भर करता है। अर्थात क्षेत्रफल बढ़ाने पर रासायनिक अधिशोषण का मान बढ़ता है।

भौतिक तथा रासायनिक अधिशोषण में अंतर

फ्रेंडलिक अधिशोषण समतापी वक्र

अधिशोषण समतापी वक्र :- स्थिर ताप पर अधिशोषण की मात्रा एवं अधिशोष्य गैस के दाब के बीच खींचे गए वक्र को अधिशोषण समतापी वक्र कहते हैं।

सन 1909 ई में वैज्ञानिक फ्रेंडलिक ने अधिशोषण समतापी वक्र पर एक संबंध बताया जिसे फ्रेंडलिक अधिशोषण समतापी वक्र कहते हैं।

फ्रेंडलिक अधिशोषण समतापी :- स्थिर ताप पर अधिशोषक द्वारा अधिशोषित गैस की मात्रा पर दाब के साथ परिवर्तन एवं वक्र के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। जिसे अधिशोषण समतापी वक्र कहते हैं।

यदि स्थिर ताप पर किसी अधिशोषक के एकांक द्रव्यमान m पर अधिशोषित पदार्थ की मात्रा x उसके समय दाब P के समानुपाती होती है। अर्थात्

जहां k एक नियतांक है जिसे अधिशोषण स्थिरांक कहते हैं। यह गैस की प्रकृति तथा ताप पर निर्भर करता है इस समीकरण को फ्रेंडलिक समतापी का व्यंजक कहते हैं।

उपरोक्त समीकरण में log लेने पर

इस समीकरण की y = mx + c से तुलना करने पर तथा log10 xm अन्तः खंड log10k प्राप्त होती है। अतः इस प्रकार इसका ग्राफ निम्न प्रकार होता है।

अतः इस प्रकार इसका ग्राफ निम्न प्रकार होता है।

जहां x = अधिशोषित गैस की मात्रा

m = अधिशोषक का द्रव्यमान

P = साम्य अवस्था में गैस का दाब

n, k = स्थिरांक हैं।

फ्रेंडलिक अधिशोषण समतापी की सीमाएं

  • n तथा k अधिशोषण स्थिरांक हैं जिसका मान ताप पर निर्भर करता है।
  • यह समतापी एक अनुभाविक है जिसकी कोई सैद्धांतिक भूमिका नहीं है।
  • समतापी वक्र, एक सीधी सरल रेखा प्राप्त होती है यह सरल रेखा केवल कम दाब पर ही प्राप्त होती है। उच्च दाब पर रेखा में थोड़ी वक्रता पायी जाती है।

अधिशोषण

जब किसी ठोस पदार्थ को द्रव या गैस के संपर्क में रखा जाता है तो ठोस की सतह पर द्रव या गैस स्थाई रूप से एकत्रित हो जाती है इस प्रक्रिया को अधिशोषण कहते हैं।

अधिशोषण की घटना में ठोस पदार्थ की सतह पर द्रव या गैस की सांद्रता बढ़ जाती है अधिशोषण एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है।

अधिशोषण प्रक्रिया जिस पृष्ठ पर होती है उसे अधिशोषक कहते हैं। एवं जिस ठोस पदार्थ पर अधिशोषण होता है उससे अधिशोष्य कहते हैं।

अधिशोषण के उदाहरण

  1. NH3 का चारकोल द्वारा अधिशोषण
  2. अभ्रक धातु द्वारा नाइट्रोजन का अधिशोषण
  3. सिलिका जेल द्वारा जल का अधिशोषण
  4. चारकोल द्वारा ब्रोमीन का अधिशोषण

अधिशोषण को प्रभावित करने वाले कारक

  1. ताप का प्रभाव :- ताप बढ़ाने पर भौतिक अधिशोषण का मान घटता है चूंकि अधिशोषण एक ऊष्माक्षेपी प्रक्रम है तथा रासायनिक अधिशोषण का मान प्रारंभ में बढ़ता है फिर बाद में घटता है।
  2. दाब का प्रभाव :- दाब के बढ़ाने पर अधिशोषण की क्रिया में वृद्धि होती है।
  3. पृष्ठ क्षेत्रफल का प्रभाव :- अधिशोषण, पृष्ठीय क्षेत्रफल पर निर्भर करता है एवं पृष्ठीय क्षेत्रफल बढ़ाने पर अधिशोषण का मान बढ़ता है।

अधिशोषण के उपयोग

  • कार्बनिक यौगिकों के शोधन में
  • उत्प्रेरक सिद्धांत की व्याख्या में
  • गैस मास्क में
  • जल के शोधन में
  • अक्रिय गैसों को अलग करने में आदि

अवशोषण

यह एक स्थूल प्रक्रिया है इसमें अधिशोषण एक समान दर से होता है अवशोषण में कोई सार्थक ऊष्मा परिवर्तन नहीं होता है।

अवशोषण के उदाहरण

  • स्टार्च द्वारा आयोडीन का अवशोषण
  • CaCl2 द्वारा जल का अवशोषण
  • किशमिश द्वारा जल का अवशोषण
  • CaCl2 में NH3 का अवशोषण

अधिशोषण तथा अवशोषण में अंतर

  • अधिशोषण एक पृष्ठीय घटना है इसमें अधिशोष्य अणु अधिशोषक की सतह पर एकत्रित रहते हैं। जबकि अवशोषण एक स्थूल प्रक्रिया है।
  • अधिशोषण एक ऊष्माक्षेपी प्रक्रिया है जबकि अवशोषण में कोई सार्थक ऊष्मा परिवर्तन नहीं होता है।
  • अधिशोषण की दर प्रारंभ में अधिक तथा बाद में घटती है। जबकि अवशोषण की दर एकसमान रहती है।
  • चारकोल द्वारा ब्रोमीन का अधिशोषण होता है जबकि स्टार्च द्वारा आयोडीन का अवशोषण होता है।

Table of Contents