अध्याय 6
कक्षा 12 Science रसायन विज्ञान अध्याय 6
तत्वों के निष्कर्षण के सिद्धांत एवं प्रक्रम
तत्वों के निष्कर्षण के सिद्धांत एवं प्रक्रम
- आयोडीन समुद्री खरपतवार में, वैनेडियम समुद्री वनस्पतियों में पाया जाता है।
- भूपर्पटी में ऑक्सीजन की मात्रा सर्वाधिक लगभग 49.5% पायी जाती है।
- हेमेटाइट मैग्नेटाइट तथा सिडेराइट यह सभी आयरन के अयस्क हैं।
- बॉक्साइट, एलुमिनियम का अयस्क है।
- झाग प्लवन विधि द्वारा सल्फाइड अयस्क का सांद्रण किया जाता है।
- कापर का मैलेकाइट CuCO3•Cu(OH)2 कार्बोनेट अयस्क है।
- धातुओं का निष्कर्षण निस्तापन, भर्जन, प्रगलन, सिंटरन आदि विधियों द्वारा किया जाता है।
- प्रगलन की क्रिया सामान्यतः वात्या भट्टी में कराई जाती है।
गालक
वे पदार्थ जो अयस्क में उपस्थित अलगनीय अशुद्धियों से संयोग करके गलनीय धातुमल बनाते हैं। उन्हें गालक कहते हैं।
गालक दो प्रकार के होते हैं।
- अम्लीय गालक
- क्षारीय गालक
- अम्लीय गालक :- जब किसी अयस्क में अशुद्धियां क्षारीय प्रकृति की होती हैं तो इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए प्रयुक्त गालक को अम्लीय गालक कहते हैं। जैसे –
CaO + SiO2 → CaSiO3
क्षारीय अशुद्धि अम्लीय गालक धातुमल
- क्षारीय गालक :- जब किसी अयस्क में अशुद्धियां अम्लीय प्रकृति की होती हैं तो इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए प्रयुक्त गालक को क्षारीय गालक कहते हैं। जैसे –
SiO2 + CaCO3 → CaSiO3 + CO2
अम्लीय अशुद्धियाँ क्षारीय गालक धातुमल
धातुओं का शोधन
अपचयन विधियों से धातुएं पूर्णतः शुद्ध नहीं होती हैं अतः इन्हें निम्न विधियों द्वारा शुद्ध किया जाता है। धातुओं के शोधन की अनेक विधियां हैं। जैसे –
- आसवन
- मंडल परिष्करण
- द्रावगलन परिष्करण
- विद्युत अपघटनी शोधन
- वाष्प प्रावस्था परिष्करण
- वर्णलेखिकी या क्रोमैटोग्राफी विधि
- आसवन :- इस विधि का उपयोग कम क्वथनांक वाली धातुओं जैसे – जिंक तथा मरकरी में किया जाता है। इसमें अशुद्ध धातु को वाष्पीकृत करके शुद्ध धातु को आसुत के रूप में प्राप्त कर लेते हैं।
- मंडल परिष्करण :- इस विधि का उपयोग अर्धचालकों जैसे – जर्मेनियम, सिलिकॉन तथा गैलियम आदि के शोधन में किया जाता है। इसमें गलित अशुद्ध धातु को पिघलाकर जब ठंडा करते हैं तो शुद्ध धातु के क्रिस्टल बनकर अलग हो जाते हैं। एवं अशुद्ध धातु गलित अवस्था में अलग हो जाती है यह प्रक्रिया निष्क्रिय वातावरण में कराई जाती है।
- द्रावगलन परिष्करण :- इस विधि का उपयोग कम गलनांक वाली धातु जैसे टिन आदि से अशुद्धियां दूर करने में किया जाता है। इसमें अशुद्ध धातु को पिघलाकर ढालू सतह पर बहने दिया जाता है जिससे अधिक गलनांक वाली अशुद्धियां पृथक हो जाती हैं।
- विद्युत अपघटनी शोधन :- इस विधि द्वारा कापर, सिल्वर, निकिल, एल्युमीनियम, सोना आदि धातुओं का शोधन किया जाता है।
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इस शोधन में शुद्ध धातु का कैथोड तथा अधातु का एनोड बनाते हैं। इसमें धातु के लवण के विलयन को विद्युत अपघट्य के रूप काम में लेते हैं। जब विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो शुद्ध धातु कैथोड पर एकत्र हो जाती है तथा अशुद्धियां एनोड मड के नीचे बैठ जाती हैं। इसमें निम्न अभिक्रियाएं संपन्न होती हैं।
एनोड पर M ⟶ Mn+ + ne–
कैथोड पर Mn+ + ne– ⟶ M
- वाष्प प्रावस्था परिष्करण :- वाष्प प्रावस्था द्वारा धातुओं का शोधन निम्न दो बिंदुओं की आवश्यकता होती है।
- उपयुक्त अभिकर्मक के साथ धातु में अवाष्पशील यौगिक बनाने की क्षमता होनी चाहिए।
- वाष्पशील पदार्थ आसानी से अपघटित हो जाता हो, अर्थात वह अधिक स्थायी नहीं होना चाहिए।
- इस परिष्करण को निम्न उदाहरण से स्पष्ट किया जाता है।
- माण्ड प्रक्रम (निकिल शोधन) :- इस प्रक्रम में निकिल की कार्बन मोनोऑक्साइड के प्रवाह के साथ क्रिया कराई जाती है। जिससे वाष्पशील यौगिक निकिल टेट्राकार्बोनिल का निर्माण होता है।
Ni+4CO 330-350K → [NiCO4]
प्राप्त यौगिक को और अधिक ताप पर गर्म करते हैं जिससे यह अपघटित होकर शुद्ध निकिल बन जाता है।
NiCO4 → Ni + 4CO
शुध्य निकिल
- वान आर्कल विधि (जर्कोनियम तथा टाइटेनियम का शोधन) :- इस विधि द्वारा Zr तथा Ti से O4 तथा N4 की अशुद्धियों को दूर किया जाता है।
इसमें अशुद्ध धातु को आयोडीन के साथ गर्म करके वाष्पशील यौगिक धातु आयोडाइड बनाते हैं। यह धातु आयोडाइड विद्युत द्वारा अपघटित होकर शुद्ध धातु में बदल जाता है।
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जिंक का निष्कर्षण
जिंक का निष्कर्षण निम्न पदों में होता है।
- अयस्क का सांद्रण :- जिंक अयस्क का सांद्रण चुंबकीय पृथक्करण विधि एवं झाग प्लवन विधि द्वारा किया जाता है। इन दोनों विधियों के बारे में हम पहले ही पढ़ चुके हैं। जब अयस्क में आयरन ऑक्साइड की अशुद्धियां उपस्थित होती हैं तो इन्हें चुंबकीय पृथक्करण विधि द्वारा अलग कर लेते हैं इस प्रकार जिंक ब्लेंड अयस्क का सांद्रण हो जाता है।
- अयस्क का भर्जन :- सांद्रित अयस्क का वायु की अधिकता में भर्जन किया जाता है तब जिंक ऑक्साइड प्राप्त होता है।
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_10-65.png)
- अयस्क का अपचयन :- भर्जन क्रिया से प्राप्त जिंक ऑक्साइड का कोक (कार्बन) के साथ मिश्रण को गर्म किया जाता है जिसके फलस्वरूप जिंक ऑक्साइड जिंक धातु में अपचयित हो जाती है।
ZnO + C 1400°C → Zn + CO
इस प्रकार प्राप्त धातु को आसवित कर तथा तीव्र शीतलन द्वारा एकत्र कर लेते हैं।
जिंक के उपयोग
जिंक का उपयोग आयरन पर पतली परत चढ़ाने में किया जाता है जिससे आयरन में जंग नहीं लगती है यह प्रक्रिया गैल्वनीकरण कहलाती है।
जिंक का प्रयोग अनेक मिश्रधातुओं के निर्माण में किया जाता है। जैसे – पीतल, जर्मन सिल्वर आदि।
जिनका उपयोग बैटरीयां बनाने में किया जाता है।
बॉक्साइट अयस्क से एल्युमिनियम का निष्कर्षण,
एल्युमिनियम प्रकृति में संयुक्त अवस्था में पाया जाता है। पृथ्वी के भू-पर्पटी भाग में एल्युमीनियम सबसे अधिक पायी जाने वाली धातुओं में तीसरे स्थान पर पाया जाता है।
एल्युमीनियम के प्रमुख अयस्क निम्न प्रकार हैं।
- बॉक्साइट – Al2O3•2H2O
- कोरन्डम – Al2O3
- डायस्पोर – Al2O3•H2O
- क्रायोलाइट – Na3AlF6
एल्युमिनियम का निष्कर्षण
एलुमिनियम का निष्कर्षण निम्न पदों में होता है।
- अयस्क का सांद्रण (शोधन) :- Al का शोधन बॉक्साइट अयस्क से किया जाता है। बॉक्साइट अयस्क में अशुद्धि के रूप में Fe2O3 तथा SiO2 उपस्थित होते हैं। बॉक्साइट के शोधन में यह दूर हो जाती हैं। इसका सांद्रण तीन प्रक्रम (विधियों) द्वारा होता है।
- हॉल प्रक्रम :- जब बॉक्साइड में Fe2O3 तथा SiO2 की अशुद्धियां अधिक मात्रा में होती है तब यह प्रक्रम प्रयोग किया जाता है।
इसमें बॉक्साइट को बारीक पीसकर सोडियम कार्बोनेट के साथ प्रगलित करते हैं जिसके फलस्वरूप सोडियम मेटा एलुमिनेट बनता है।
Al2O3 + Na2CO3 → 2NaAlO2 + CO2
बॉक्साइट सोडियम कार्बोनेट सोडियम मेटा एलुमिनेट
प्रगलित सोडियम मेटा एलुमिनेट को जल से धोने पर NaAlO2 घुल जाता है और अशुद्धियां अविलेय होने के कारण ऊपर रह जाती हैं जिन्हें छानकर अलग कर दिया जाता है। अब शेष द्रव का ताप 50-60°C करके उसमें CO2 गैस प्रवाहित की जाती है जिससे एल्यूमीनियम हाइड्रोक्साइड Al(OH)3 अवक्षेपित हो जाता है इसे छानकर सुखा लेते हैं। सूखे
Al(OH)3 को 1200°C पर गर्म करने से शुद्ध एलुमिना प्राप्त होता है।
2NaAlO2 + 3H2O + CO2 ⟶ 2Al(OH)3 ↓ + Na2CO3
2AIOH3 1200°C → Al2O3 + 3H2O
एलुमिना
- वेयर प्रक्रम :- इसमें बॉक्साइट को 150°C ताप पर तथा 80 वायुमंडलीय दाब पर NaoH का विलयन डालकर गर्म करते हैं जिससे सोडियम मेटा एलुमिनेट प्राप्त होता है।
Al2O3 + 2NaoH ⟶ 2NaAlO2 + H2O
अब अविलेय अशुद्धियों को छानकर अलग कर लेते हैं। तथा विलयन में जल मिलाकर थोड़ा ताजा अवक्षेपित Al(OH)3 डाल देते हैं जिससे NaAlO2 जल अपघटित होकर Al(OH)3 का अवक्षेप बन जाता है।
NaAlO2 + 2H2O ⟶ Al(OH)3 ↓ + NaOH
अब अवक्षेप को छानकर, गर्म करने पर एलुमिना प्राप्त होता है।
2Al(OH)3 ⟶ Al2O3 + 3H2O
- सर्पेक प्रक्रम :- इसमें बॉक्साइट को कोक (कार्बन) के साथ मिलाकर 1800°C ताप पर नाइट्रोजन गैस की उपस्थिति में गर्म करते हैं जिसके फलस्वरूप एल्युमीनियम नाइट्राइड (AlN) बनता है।
AlO°2H2O+ 2C+N2 1800°C → 2AIN + 2H2O + 2CO2↑
और सिलिका अपचयित होकर सिलिकन में बदल जाती है।
SiO2 + 2C ⟶ Si ↓ + 2CO
अब AlN का जल अपघटन करके Al(OH)3 का अवक्षेप प्राप्त होता है।
AlN + 3H2O ⟶ Al(OH)3 ↓ + NH3 ↑
इस अवक्षेप को छानकर, सुखने के बाद गर्म करने पर Al2O3 प्राप्त होता है।
2Al(OH)3 ⟶ Al2O3 + 3H2O
- एलुमिना का विद्युत अपघटन :- इस विधि को वैज्ञानिक हॉल व हैराल्ट ने ज्ञात किया था जिस कारण इसे हॉल-हैराल्ट प्रक्रम भी कहते हैं।
इसमें एलुमिना के विद्युत अपघटन से कैथोड पर Al तथा एनोड पर O2 प्राप्त होती हैं जिसे बाहर निकाल देते हैं।
कैथोड पर Al3+ + 3e– ⟶ Al (अपचयन)
एनोड पर C + O2- ⟶ CO + 2e–
C + 2O2- ⟶ CO2 + 4e–
इस प्रक्रम में 99% शुद्ध एल्युमिनियम प्राप्त होता है।
एल्युमीनियम के उपयोग
- एल्युमीनियम का उपयोग विद्युत उपकरण, केबिल आदि बनाने में किया जाता है।
- एल्युमीनियम का उपयोग घरेलू बर्तनों के निर्माण में किया जाता है
- एल्युमिनियम का उपयोग वाहनों के पुर्जे बनाने में किया जाता है।
- इसका उपयोग सजावटी वस्तुएं आदि बनाने में किया जाता है।
- लोहे के लेपन में तथा सिल्वर पेंट बनाने में प्रयोग होता है।
कॉपर का निष्कर्षण
कॉपर प्रकृति में स्वतंत्र तथा संयुक्त दोनों अवस्थाओं के रूप में पाया जाता है। इसके अयस्क सल्फाइड एवं कार्बोनेट के रूप में मिलते हैं।
कोपर के प्रमुख अयस्क निम्न प्रकार से हैं।
- कॉपर पायराइट – CuFeS2
- मेलेकाइट – CuCO3•Cu(OH)2
- क्यूप्रस ऑक्साइड – Cu2O
- कॉपर ग्लांस – Cu2S
कॉपर का निष्कर्षण :- कॉपर का निष्कर्षण निम्न पदों में होता है।
- अयस्क का सांद्रण :- इसमें अयस्क को बारीक पीस लेते हैं फिर बारीक पिसे हुए अयस्क को जल तथा चीड़ के तेल में मिलाकर एक टैंक में डाल दिया जाता है एवं टैंक में ऊर्ध्वाधर नली की सहायता से वायु प्रवाहित की जाती है जिससे अशुद्धि नीचे बैठ जाती है। एवं अयस्क के कण झाग के साथ ऊपर आ जाते हैं जिन्हें अलग करके धो लिया जाता है। यह फेन प्लवन विधि कहलाती है।
- अयस्क का भर्जन :- सांद्रित अयस्क को परावर्तनी भट्टी में भर्जित करते हैं। भर्जन की प्रक्रिया में अयस्क में निम्न परिवर्तन होते हैं।
3. अयस्क में अशुद्धियां ऑक्सीकृत होकर वाष्पशील ऑक्साइडों के रूप में दूर हो जाती हैं।
S + O2 ⟶ SO2
4As + 3O2 ⟶ 2As2O3
- अयस्क, स्केटर सल्फाइड तथा क्यूप्रस सल्फाइड का मिश्रण बनाता है।
2CuFeS2 + O2 ⟶ Cu2S + 2FeS + SO2
2. प्रगलन :- भर्जित अयस्क को वात्या भट्टी में कोक व सिलिका मिलाकर प्रगलन करते हैं।
इसमें अनेक अभिक्रियाएं संपन्न होती हैं।
2FeS + 3O2 ⟶ 2FeO + 2SO2
फैरस ऑक्साइड रेत (सिलिका) के साथ धातुमल बना लेता है।
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4. बेसेमरीकरण :- मैट से कापर प्राप्त करने के लिए बेसेमर परिवर्तक का उपयोग करते हैं। यह प्रक्रिया बेसेमरीकरण कहलाती है।
यह स्टील की बनी नाशपाती आकार की एक भट्टी होती है। इसमें द्रवित में थोड़ी रेत मिलाकर उसे बेसेमर परिवर्तक में डाल देते हैं जिनके भीतर चूना या MnO का अस्तर लगा होता है। परिवर्तक में गर्म वायु प्रवाहित करते हैं जिसमें निम्न अभिक्रिया संपन्न होती हैं।
2FeS + 3O2 ⟶ 2FeO + 2SO2
2Cu2S + 3O2 ⟶ 2Cu2O + 2SO2
क्यूप्रस ऑक्साइड, आयरन सल्फाइड से क्रिया करके Cu2S तथा FeO बनाता है एवं FeO रेत से क्रिया करके FeSiO3 धातुमल बनाता है।
Cu2O + FeS ⟶ Cu2S + FeO
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_7-87.png)
इसमें बारीक पिसे हुए अयस्क को रबड़ की बेल्ट के एक सिरे पर डाल दिया जाता है तो चुंबकीय कण चुंबकीय रोलर से निकट इकट्ठा हो जाते हैं। जबकि अनुचुंबकीय कण रोलर से दूर इकट्ठा हो जाते हैं। इस विधि को चुंबकीय पृथक्करण विधि कहते हैं।
इस विधि द्वारा फेरोमैग्नेटिक अयस्क, वालफ्रेमाइट अयस्क आदि का सांद्रण किया जाता है।
3. सांद्रित अयस्क का भर्जन अथवा निस्तापन :- सांद्रित अयस्क को कम गहरी भट्टी में वायु की उपस्थिति में तेज गर्म किया जाता है तो निस्तापन में निम्न परिवर्तन होते हैं।
- अयस्क में नमी भाप बन कर निकल जाती है जिससे अयस्क शुष्क हो जाता है।
- सल्फर आर्सेनिक तथा फास्फोरस क्रमशः SO2, As2O3 तथा P4O10 के रूप में पृथक हो जाते हैं।
- कार्बोनेट अयस्क अपघटित होकर फेरिक ऑक्साइड FeO बनाते हैं फिर वह फैरिस ऑक्साइड में ऑक्सीकृत हो जाता है।
FeCO3 ⟶ FeO + CO2
4FeO + O2 ⟶ 2Fe2O3
4. धातु ऑक्साइड का अपचयन (प्रगलन) :- अयस्क में कोक तथा उचित गालक मिलाकर, मिश्रण को उच्च ताप पर गलाने की प्रक्रिया को प्रगलन कहते हैं।
प्रगलन की प्रक्रिया वात्या भट्टी में होती है।
वात्या भट्टी छोटी एवं बड़ी दोनों प्रकार की होती है बड़ी वात्या भट्टी आकार में चिमनी की तरह होती है जो 25 से 60 मीटर ऊंचाई तक एवं 12 से 14 मीटर व्यास की होती है। इसकी बाहरी सतह इस्पात की चादरों से बनी होती हैं एवं इसकी अंदर की सतह अग्निसह ईंटों की बनी होती है।
ढलवां लोहा
यह लोहे का सबसे कम शुद्ध रूप होता है। इसमें कार्बन की मात्रा 3% पायी जाती है। एवं अन्य धातुएं जैसे – सिलिकॉन, फास्फोरस तथा सल्फर आदि अल्प मात्रा में अशुद्धि के रूप में पायी जाती हैं।
पिटवां लोहा
यह लोहे का सबसे शुद्धतम रूप होता है इसमें कार्बन की मात्रा 0.5% से भी कम पायी जाती है। ए
एवं इसमें अन्य अशुद्धियां नहीं पायी जाती हैं।
इस्पात
यह एक मिश्रधातु होती है इसमें कार्बन की मात्रा 0.1 – 1.5% होती है एवं इसमें अल्प मात्रा में सल्फर और फास्फोरस भी पायी जाती है।
पिटवां लोहे का निर्माण
यह लोहे का सबसे शुद्धतम रूप होता है कच्चे अथवा ढलवां लोहे से पिटवां लोहे को एक विशेष प्रक्रम द्वारा प्राप्त किया जाता है। जिसे पडलिंग प्रक्रम कहते हैं।
इसमें ढलवां लोहे में गालक मिलाकर इसे हेमेटाइट Fe2O3 के अस्तर के साथ परावर्तनी भट्टी में गर्म किया जाता है हेमेटाइट का अस्तर ऑक्सीकारक का कार्य करता है। ढलवां लोहे में विद्यमान C, S की अशुद्धियां वाष्पशील ऑक्साइड बना लेती हैं। जबकि सिलिकॉन, मैंगनीज की अशुद्धियां धातुमल बनाती हैं।
C + Fe2O3 ⟶ 2FeO + 2CO
3S + 2Fe2O3 ⟶ 4Fe + 3SO2
3Mn + 2Fe2O3 ⟶ 2Fe + 3MnO
![](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_6-92.png)
इस प्राप्त धातु की एक लुगदी बन जाती है जो गेंदों के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इन गेंदों को हथौड़े से पीटते हैं जिससे इनमें विद्यमान धातुमल बाहर निकल जाता है और अंत में प्राप्त लोहे का सबसे शुद्धतम रूप होता है इसे ही पिटवा लोहा कहते हैं।
आयरन (लोहे) के उपयोग
- रेलवे स्लीपर्स, स्टॉव, नलों के पाइप आदि ढलाऊ चीजें बनाने में ढलवां लोहे का प्रयोग किया जाता है।
- तार, यंत्र, जंजीर आदि के निर्माण में पिटवा लोहे का प्रयोग किया जाता है।
- संदूक, अलमारी अन्य घरेलू वस्तुएं, वाहनों की बॉडी आदि में इस्पात (स्टील) का प्रयोग किया जाता है।
प्रगलन
अयस्क में कोक तथा उचित गालक मिलाकर, मिश्रण को उच्च ताप पर गलाने की प्रक्रिया को प्रगलन कहते हैं।
प्रगलन की प्रक्रिया वात्या भट्टी में होती है।
वात्या भट्टी
वात्या भट्टी छोटी एवं बड़ी दोनों प्रकार की होती है बड़ी वात्या भट्टी आकार में चिमनी की तरह होती है जो 25 से 60 मीटर ऊंचाई तक एवं 12 से 14 मीटर व्यास की होती है। इसकी बाहरी सतह इस्पात की चादरों से बनी होती हैं एवं इसकी अंदर की सतह अग्निसह ईंटों की बनी होती है।
इस भट्टी के तीन भाग होते हैं।
- ऊपरी भाग :- इस भाग को हापर कहते हैं भट्टी के अंदर अयस्क, कोक कथा गालक के मिश्रण को इसी भाग में डाला जाता है। इस भाग में कप तथा शंकु व्यवस्था होती है जिसकी सहायता से अयस्क धीरे-धीरे भट्टी में जाता है।
- मध्य भाग :- इसमें दो पाइप लगे होती है जिनकी सहायता से भट्टी में गर्म गैस प्रवाहित की जाती है जिन्हें ट्वीयर कहते हैं। इस भाग में एक द्वार बना होता है जहां से भट्टी में व्यर्थ गैसों को बाहर निकाला जाता है।
- निचला भाग :- भट्टी के सबसे निचले भाग को तल कहते हैं। जिसमें पिघली हुई धातु द्रव के रूप में एकत्रित होती है इस भाग में दो मार्ग होते हैं एक मार्ग से गलित धातु बाहर निकलती है तथा दूसरे मार्ग से धातुमल बाहर निकलती है चित्र से स्पष्ट है।
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_5-95.png)
वात्या भट्टी का मुख्य उपयोग आयरन के निष्कर्षण में किया जाता है। छोटी वात्या भट्टी में कॉपर तथा लेड का निष्कर्षण भी किया जाता है। चित्र के अनुसार आप वात्या भट्टी की क्रियाविधि आसानी से समझ गए होंगे।
वात्या भट्टी की अभिक्रियाएं
500 – 800K पर –
Fe2O3 पहले Fe3O4 में अपचयित होता है तथा बाद में FeO में हो जाता है।
3Fe2O3 + CO ⟶ 2Fe3O4 + CO2
Fe3O4 + 4CO ⟶ 3Fe + 4CO2
Fe2O3 + CO ⟶ 2FeO + CO2
वात्या भट्टी का यह निम्न का परिसर होता है।
800 – 1000°C पर –
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_4-102.png)
1200 – 1300°C पर –
2CO ⟶ CO2 + C
यह वात्या भट्टी की गलन खंड परिसर होती है।
भर्जन तथा निस्तापन
सांद्रित अयस्कों का ऑक्सीकरण दो विधियों द्वारा किया जाता है।
- निस्तापन
- भर्जन
निस्तापन :- वह प्रक्रिया जिसमें अयस्क को उसके गलनांक से कम ताप पर वायु की अनुपस्थिति में गर्म करते हैं। तो इसे निस्तापन कहते हैं।
निस्तापन की क्रिया में अयस्क में सेजल व वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। और अयस्क शुष्क व सरन्ध्र हो जाता है।
निस्तापन के उदाहरण
कार्बोनेट अयस्क को गर्म करने पर कार्बन डाइऑक्साइड CO2 गैस निकलती है और अयस्क सरन्ध्र ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है।
CaCO3 ⟶ CaO + CO2
ZnCO3 ⟶ ZnO + CO2
CuCO3•Cu(OH)2 ⟶ 2CuO + H2O + CO2
Fe2O3•3H2O ⟶ Fe2O3 + 3H2O
निस्तापन की क्रिया कार्बोनेट अयस्कों के लिए प्रयोग की जाती है।
निस्तापन के गुण
- इसके आर्द्रता (नमी) दूर हो जाती है एवं अयस्क शुष्क हो जाता है।
- इसमें कार्बोनेट से CO2 गैस निकलती है तथा वे ऑक्साइट बना लेते हैं।
- इस क्रिया में अयस्क सरन्ध्र हो जाता है।
- यह प्रक्रिया परावर्तनी भट्टी में होती है।
- भर्जन :- वह प्रक्रिया जिसमें अयस्क को उसके गलनांक से कम ताप पर वायु की उपस्थिति में गर्म करते हैं तो इसे भर्जन कहते हैं। भर्जन क्रिया में As, S आदि की अशुद्धियां वाष्पशील ऑक्साइड के रूप में निकल जाती हैं। और अयस्क ऑक्सीकृत होकर धातु ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है।
भर्जन के उदाहरण
भर्जन में सल्फर, आर्सेनिक आदि की अशुद्धियां SO2, As2O3 आदि के रूप में ऑक्सीकृत होकर दूर हो जाती है।
S + O2 ⟶ SO2 ↑
4As + 3O2 ⟶ 2As2O3
2Cu2S + 3O2 ⟶ 2Cu2O + 2SO2 ↑
2PbS + 3O2 ⟶ 2PbO + 2SO2
भर्जन की क्रिया सल्फाइड अयस्कों के लिए प्रयुक्त की जाती है।
भर्जन के गुण
- इसमें आर्द्रता दूर हो जाती है।
- इसमें सल्फाइड अयस्कों को ऑक्साइड में परिवर्तित किया जाता है।
- इसमें वाष्पशील अशुद्धियां दूर हो जाती है।
- यह प्रक्रिया भी परावर्तनी भट्टी में होती है।
अयस्क का सांद्रण
जब किसी अयस्क को खानों से प्राप्त किया जाता है तो उन अयस्कों में अनेकों अशुद्धियां जैसे रेत, कंकड़, धूल के कण आदि विद्यमान होते हैं। जिन्हें गैंग या आधात्री कहते हैं।
अयस्कों में से गैंग या आधात्री को अलग करने पर अयस्क में धातु की प्रतिशतता बढ़ जाती है। अर्थात् अयस्कों में से अशुद्धियों को पृथक करने की प्रक्रिया को अयस्क का सांद्रण कहते हैं।
अयस्कों का सांद्रण निम्न प्रकार से किया जाता है।
- गुरुत्व पृथक्करण विधि
इस विधि का उपयोग सामान्यतः तब किया जाता है जब अयस्क के कण आधात्री (अशुद्धि) से भारी होते हैं। गुरुत्व पृथक्करण विधि में अयस्क को बारीक पीसकर जल की धारा में धोया जाता है। अशुद्धियों के कण हल्के होने के कारण जल की धारा के साथ बह जाते हैं एवं शेष अयस्क के कण रह जाते हैं इस विधि को गुरुत्व पृथक्करण विधि कहते हैं।
- चुंबकीय पृथक्करण विधि
जब अयस्क या अशुद्धियों में से कोई भी एक चुंबकीय प्रकृति का होता है तब चुंबकीय पृथक्करण विधि का प्रयोग किया जाता है।
इस विधि में दो रोलरो के ऊपर एक रबड़ की बेल्ट चढ़ी होती है इन रोलरो में से एक रोलर चुंबकीय प्रकृति का होता है।
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_3-106.png)
इसमें बारीक पिसे हुए अयस्क को रबड़ की बेल्ट के एक सिरे पर डाल दिया जाता है तो चुंबकीय कण चुंबकीय रोलर से निकट इकट्ठा हो जाते हैं। जबकि अनुचुंबकीय कण रोलर से दूर इकट्ठा हो जाते हैं। इस विधि को चुंबकीय पृथक्करण विधि कहते हैं।
इस विधि द्वारा फेरोमैग्नेटिक अयस्क, वालफ्रेमाइट अयस्क आदि का सांद्रण किया जाता है।
- फेन या झाग प्लवन विधि
इस विधि का उपयोग सल्फाइड अयस्कों के सांद्रण में किया जाता है।
इस विधि में बारीक पिसे हुए अयस्क को जल तथा चीड़ के तेल के मिश्रण में डाल दिया जाता है एवं मिश्रण में एक ऊर्ध्वाधर नली की सहायता से वायु प्रवाहित की जाती है। जिससे शुद्ध अयस्क के कण तेल के साथ झाग बनकर टैंक के ऊपर आ जाते हैं। एवं अशुद्धियां टैंक के नीचे बैठ जाती हैं।
![तत्वों के निष्कर्षण](https://gyanchakra.co.in/wp-content/uploads/2023/06/Screenshot_2-115.png)
यह विधि अयस्क के कण या आधात्री कण की, किसी तरल पदार्थ से भीगने की प्रकृति पर निर्भर करती है।
फेन प्लवन विधि (froth floatation process in Hindi) द्वारा कॉपर पायराइट (CuFeS2), सिल्वर ग्लांस (Ag2S) गैलेना (PbS) आदि का सांद्रण किया जाता है।
- निक्षालन (लीचिंग)
अयस्कों के सांद्रण की निक्षालन एक रासायनिक विधि है।
इस विधि में अयस्क को अम्ल, क्षार या अन्य अभिकर्मक के साथ अभिकृत करते हैं। जिससे अयस्क तो विलेय हो जाता है। परंतु अशुद्धि अविलेय रहती हैं जिन्हें जानकर अलग कर दिया जाता है।
बॉक्साइट (Al2O3•2H2O) अयस्क का सांद्रण निक्षालन विधि द्वारा ही किया जाता है।
अयस्क
वह खनिज जिनमें शुद्ध धातु का निष्कर्षण सरलतापूर्वक अधिक मात्रा में एवं कम खर्च में किया जा सकता है उन खनिज को अयस्क कहते हैं।
सभी अयस्क खनिज होते हैं लेकिन सभी खनिज अयस्क नहीं होते हैं।
अयस्क के प्रकार
अयस्कों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया गया है।
- प्राकृतिक अयस्क
- सल्फाइड अयस्क
- ऑक्साइड अयस्क
- कार्बोनेट अयस्क
- क्लोराइड अयस्क
- संकर अयस्क
- प्राकृतिक अयस्क :- इन अयस्कों में धातु अपनी धात्विक अवस्था में ही पाई जाती है परंतु उसमें कुछ अशुद्धियां जैसे रेत मिट्टी आदि पाई जाती हैं। उदाहरण – प्लैटिनम, चांदी (Ag) तथा सोना (Au) आदि।
- सल्फाइड अयस्क :- इन अयस्कों में धातुएं अपने सल्फाइडों के रूप में पायी जाती हैं। जैसे –
कापर ⇒ कॉपर पायराइट (CuFeS2)
लेड ⇒ गैलेना (PbS)
आयरन ⇒ आयरन पायराइट (FeS2)
मरकरी ⇒ सिनेबार (HgS)
जिंक ⇒ जिंक ब्लेंडी (ZnS)
- ऑक्साइड अयस्क :- इन अयस्कों में धातुएं अपने ऑक्साइडों के रूप में पायी जाती हैं। जैसे –
एल्युमीनियम ⇒ बॉक्साइट (Al2O3•2H2O)
कापर ⇒ क्यूप्राइट (Cu2O)
जिंक ⇒ जिंकाइट (ZnO)
आयरन ⇒ हेमेटाइट (Fe2O3)
- कार्बोनेट अयस्क :- इन अयस्कों में धातुएं अपने कार्बोनेटों के रूप में मिलती हैं। जैसे –
जिंक ⇒ कैलेमाइन (ZnCO3)
मैग्नीशियम ⇒ मैग्नेसाइड (MgCO3)
कापर ⇒ मैलेकाइट (Cu(OH)2•CuCO3)
लेड (सीसा) ⇒ सेरूसाइट (PbCO3)
- क्लोराइड अयस्क :- इन अयस्कों में धातुएं अपने क्लोराइडों के रूप में पायी हैं। जैसे – सोडियम ⇒ रॉकसॉल्ट (NaCl)
पोटेशियम ⇒ सिल्वाइन (KCl)
सिल्वर ⇒ हॉर्नसिल्वर (AgCl)
- संकर अयस्क :- इन अयस्कों में धातुएं खनिजों के मिश्रण के रूप में पायी जाती हैं। जैसे –
लेपिडोलाइट ⇒ [(Ni, Na, K)2•Al2(SiO3)3•(F,OH)2]
ट्राइफाइलाइट ⇒ [(Li, Na)3•PO4(Fe, Mn)3(PO4)2]
कुछ महत्वपूर्ण अयस्क
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