अध्याय-4

कक्षा 7 विज्ञान भौतिकी अध्याय-4

ऊष्मा

ऊष्मा

ऊर्जा का एक रूप है जो ताप के कारण होता है।

किसी पदार्थ के गर्म या ठंडे होने के कारण उसमें जो ऊर्जा होती है उसे उसकी ऊष्मीय ऊर्जा कहते हैं। इसका मात्रक भी जूल (Joule) होता है पर इसे कैलोरी (Calorie) में भी व्यक्त करते हैं। जब कभी कार्य ऊष्मा में बदलता है या ऊष्मा, कार्य में तो किये गये कार्य व उत्पन्न ऊष्मा का अनुपात एक स्थिरांक होता है, जिसे ऊष्मा का यांत्रिक तुल्यांक (Mechanical Equivalent) कहते हैं।इसे ‘J’ से सूचित किया जाता है। ऊष्मा ऊर्जा का ही ए‍क रूप होती है।

ऊष्मा

अर्थात् जब किसी निकाय तथा उसके चारो ओर के परिवेश के मध्‍य जब उनके तापमान मे अन्‍तर हेाता है तो ऊर्जा का आदान-प्रदान हेाने लगता है। यह आदान-प्रदान उष्‍मा के रूप में होता है।

उष्‍मा के प्रकार

विशिष्ट उष्‍मा

किसी पदार्थ की विशिष्‍ट उष्‍मा, उष्‍माधारिता की हि तरह पदार्थ का एक विशिष्‍ट गुण हेाती है। पदार्थ के एक ग्राम द्रव्‍यमान का तापमान

1° C बडाने के लिये आवश्‍यक होने वाली उष्‍मा की मात्रा केा हम उस पदार्थ की विशिष्‍ट उष्‍मा कहते है।

ऊष्मा

विशिष्‍ट उष्‍मा को S द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

विशिष्ट ऊष्मा का S.I. मात्रक = J/Kg/K होता है।

मोलर विशिष्ट ऊष्मा पदार्थ की प्रकृति तथा ताप पर निर्भर करती है। 

इसका मात्रक J/Kg/K 

गैस की विशिष्ट ऊष्मा नियत आयतन व नियत दाब पर भिन्न होती है। नियत दाब पर मौला विशिष्ट ऊष्मा में गैस को स्थिति दाब पर ऊष्मा प्रदान की जाती है। नियत ताप पर विशिष्ट ऊष्मा को Cp के द्वारा व्यक्त करते हैं। और यदि गैस को नियत आयतन पर ऊष्मा प्रदान की जाती है तब इसे नियत आयतन पर मोलर विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं। जिसे Cv से व्यक्त करते है।

गुप्त ऊष्मा

किसी पदार्थ की अवस्था परिवर्तन के दौरान ऊष्मा की मात्रा का प्रति एकांक द्रव्यमान स्थानांतरण उस पदार्थ की गुप्त ऊष्मा कहलाती है। अवस्था परिवर्तन के दौरान पदार्थ के द्वारा ली गई ऊष्मा से पदार्थ के ताप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जबकि यह ली गई ऊष्मा पदार्थ की अवस्था परिवर्तन के दौरान उपयोग में आती है।

ऊष्मा

उदाहरण के लिए 15 डिग्री सेल्सियस पर उपस्थित बर्फ को गर्म किया जाए तो इसके गलनांक बिंदु जीरो डिग्री सेल्सियस तक ताप बढ़ता है। पर गलनांक बिंदु पर पहुंचने पर और ऊष्मा देने पर ठोस से द्रव अवस्था परिवर्तन तक ताप में कोई वृद्धि नहीं होती है। इस प्रकार की स्थितियों में ऊष्मा की गुप्त ऊष्मा कहलाती है।

गुप्त ऊष्मा का S.I. मात्रक – J/Kg होता है।

गुप्त ऊष्मा का मान दाब पर निर्भर करता है।

उष्‍मा का संचरण

उष्‍मा का किसी एक वस्‍तु से दूसरी वस्तु में जाने को अथवा किसी वस्‍तु में उष्‍मा के मान मे परिवर्तन अर्थात् उष्‍मा का किसी वस्‍तु में एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर जाने को हम उष्‍मा का संचरण या उष्‍मा का स्‍थानांतरण कहते हैं। उष्‍मा के संचरण का मान माध्‍यम के प्रकार तथा उनके अणुओं के मध्‍य होने वाली गतिज ऊर्जा पर निर्भर करती हैं।

उष्‍मा का स्‍थानांतरण मुख्‍यत: तीन प्रकार से होता है।

  • चालन

  • संवहन

  • विकरण

चालन

उष्‍मा के संचरण की इस विधि में उष्‍मा का स्‍थानान्‍तरण माध्‍यम के अणुओं के परस्‍पर संपर्क के कारण होता है । इसमें उष्‍मा माध्‍यम के एक अणु से निकलकर दूसरें अणु केा मिल जाती हैं। इसमें माध्‍यम के अणु अपने स्‍थान पर से विस्‍थापित नहीं होते बल्कि वे अपने ही जगह पर स्थिर रहकर उष्‍मा का संचरण करते हैं।

उष्‍मा का संचरण चालन विधि के द्वारा केवल ठोंसो में होता है। क्योंकि ठोसों के अणु आपस में पास-पास स्थित होतें है। जिससे अणुओं के मध्‍य उष्‍मा का संचरण चालन विधि के द्वारा आसानी से होने लगता हैं।

सभी धातुओं में उष्‍मा का स्‍थानान्‍तण चालन विधि के द्वारा होता है। चुंकि धातुयें उष्‍मा की सुचालक हेाती है। धातुओं की सुचालकता उनमें उपस्थित मुक्‍त इलैक्‍र्टोनों के कारण होती है। धातुओं के अन्‍दर उपस्थित इलैर्क्‍टान किसी से बद्ध न होकर धातु के भीतर गति करने के लियें स्‍वतंत्र रहतें है। और धातुओं में उष्‍मा का संचरण चालन विधि से कराने में सहायक होतें है।

उदाहरण– जब हम किसी धातु की छड को एक सिरे से पकडकर दूसरे को उष्‍मा देतें है तो कुछ समय के बाद दूर वाला सिरा भी गर्म होने लगता है तथा धातु की छड अपनी पूरी लम्‍बाई में गर्म होने लगती है।

संवहन

उष्‍मा संचरण की इस विधि में उष्‍मा का संचरण कणों की स्‍वंय के स्‍थानान्‍तरण के फलस्‍वरूप होता है। जब हम किसी द्रव पदार्थ को उष्‍मा देते है तो उष्‍मा के कारण द्रव का तापमान परिवर्तन होने लगता है। तापमान में परिवर्तन होने से द्रवो का घनत्‍व में परिवर्तन होने लगता है। घनत्‍व में परिवर्तन होने पर द्रव के कम घनत्‍व वाले कण ऊपर उठने लगतें है तथा उनके स्‍थान पर अधिक घनत्‍व वाले कण आकर उनका स्‍थान ग्रहण कर लेते है यह प्रक्रिया तब तक निरंतर चलती रहती है

ऊष्मा

जब तक सम्‍पूर्ण द्रव का तापमान एक समान नहीं हो जाता है । इसमें कण अपना स्‍थान परिवर्तन करके उष्‍मा का संचरण करतें है। उष्‍मा संचरण की यह विधि संवहन कहलाती है।

संवहन विधि के द्वारा उष्‍मा का संचरण केवल द्रवों ओर गैसों में ही हो पाता है यह विधि ठोसों के लियें प्रभावी नहीं होती है।

उदाहरण:- वायूमंडल में बादलों का बनना संवहन क्रिया के द्वारा ही बनते है ।इसी प्रकार जब हम किसी बर्तन में पानी डालकर उसे गर्म करते है तो पानी के गर्म होने की क्रिया में सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण भूमिका संबहन की निभाता है। जिसके फलस्‍वरूप पानी गर्म होने लगता है।

द्रवों में उष्‍मा का संचरण चालन विधि से भी हो सकता है

विकरण

उष्‍मा संचरण की इस विधि में उष्‍मा का संचरण बहुत तीव्र गति से होता है । तथा उष्‍मा की इस विधि में माध्‍यम की आवश्‍यकता नहीं होती है। प्रत्‍येक बस्‍तु हर समय अपने स्‍वंय के तापमान के कारण सतत् रूप से उष्‍मा का उत्‍सर्जन करती रहती है। तथा इसके साथ-साथ अपने ऊपर आपतित होने वाली उष्‍मा को अव‍शोषित करती रहती है। इस प्र‍कार उत्‍सर्जित होने वाली उष्‍मा को विकरण उष्‍मा अथवा उष्‍मीय विकरण कहलाती है।

सूर्य से प्रथ्‍वी पर प्रकाश उष्‍मीय विकरण के रूप में ही पहुंचता है। उष्‍मीय विकरण विद्युत चुंबकीय तरंगो के रूप में प्रकाश की चाल से चलती है तथा उष्मीय विकरण के संचरण के लिये माध्‍यम की आवश्‍यकता नहीं होती है। जब उष्‍मीय विकरण ऊर्जा किसी पारदर्शी माध्‍मम में से गुजरता है तो माध्‍यम का तापमान अपरिवर्तित रहता है

जबकि यह विकरण किसी अपारदर्शी माध्‍यम में से गुजरने पर यह माध्‍यम के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है तथा माध्‍मम का तापमान में व्रद्धि कर देता है । बस्‍तुऐं केवल उष्‍मा का उत्‍सर्जन ही नहीं करती बल्कि ये अपने पास उपस्थित अन्‍य वस्‍तुओ से उत्‍सर्जित उष्‍मा का अवशोषित भी करती है।

उदाहरण:- जब हम अपनी हाथो को आग के पास में रखते है तो हमें गर्मी का अहसास होता है जबकि हमारे हाथ आग से काफी दूर होते है ऐसा उष्‍मीय विकरण के द्वारा हमारे अपारदर्शी हाथों के संपर्क में आने के कारण होता है ओर हमें विकरण विधि के द्वारा उष्‍मा प्राप्‍त हेाती है।

ऊष्मा

ताप

किसी वस्तु की उष्णता (गर्मी) के माप को ताप कहते हैं। सामान्य भाषा में ताप किसी वस्तु की गर्माहट या ठण्डेपन की माप है। ऊष्मा का प्रवाह हमेशा उच्च ताप की वस्तु से निम्न ताप की वस्तु की ओर होता है।

ताप एक भौतिक राशी होती है और इसका सीधा सम्बन्ध कणों की गतिज ऊर्जा से होता है जैसे यदि दो पानी के गिलास है एक गिलास दुसरे की तुलना में अधिक गर्म है तो इसका अभिप्राय है कि गर्म गिलास के पानी के अणुओं में अधिक गतिज उर्जा है अर्थात यदि वस्तु अन्य वस्तु की तुलना में गर्म है तो इसका तात्पर्य है कि गर्म वस्तु में गतिज ऊर्जा का मान ठंडी की तुलना में अधिक है और इसी अधिक गतिज ऊर्जा के कारण है यह वस्तु गर्म महसूस हो रही है।

थर्मामीटर :- ताप मापने के लिए उपयोग की जाने वाली युक्ति को तापमापी (थर्मामीटर) कहते है।

डॉक्टरी थर्मामीटर :- जिस तापमापी से हम अपने शरीर के ताप को मापते हैं उसे डॉक्टरी थर्मामीटर कहते हैं।

सेल्सियस स्केल :- ताप मापने के स्केल जिसे C द्वारा दर्शाते हैं। डॉक्टरी थर्मामीटर से हम 35 C से 42 C तक के ताप ही माप सकते हैं।

ऊष्मा

आपके शरीर का ताप को सदैव इसके मात्रक C के साथ व्यक्त करना चाहिए। मानव शरीर का सामान्य ताप 37° कि होता है।

मानव शरीर का ताप सामान्यतः 35 C से कम तथा 42 C से अधिक नही होता। इसलिए थर्मामीटर का परिसर 35 C से 42 C है।

प्रयोगशाला तापमापी :- अन्य वस्तुओं के ताप मापने के लिए तापमापी प्रयोशाला तापमापी है। प्रयोशाला तापमापी का परिसर प्रायः 10 C से 110 सी होता है। मौसम की रिपोर्ट देने के लिए अधिकतम – न्यूनतम तापमापी का उपयोग किया जाता है।

ऊष्मा का स्थानांतरण :- जब किसी बर्तन को ज्वाला पर रखते हैं तो वह तप्त हो जाता है। ऊष्मा बर्तन से परिवेश की ओर स्थानांतरित हो जाती है। ऊष्मा सदैव गर्म वस्तु की अपेक्षाकृत ठंडी वस्तु की ओर प्रवाहित होती है।

चालन :- वह प्रक्रम जिसमें ऊष्मा किसी वस्तु के गर्म सिरे से ठंडे सिरे की ओर स्थानांतरित होती है, चालन कहलाता है।

चालक :- जो पदार्थ ऊष्मा को आसानी से जाने देते हैं उन्हें उष्मा का चालक कहते हैं।

ऊष्मा

उदाहरण :- ऐलुमिनियम, लोहा, ताँबा।

कुचालक :- जो पदार्थ अपने उष्मा को आसानी से नही जाने देते, उन्हें उष्मा का कुचालक कहते हैं।

जैसे :- प्लास्टिक तथा लकड़ी।

समुद्र समीर

पृथ्वी जल की अपेक्षा सुचालक है। जल का आपेक्षिक ताप उच्चतम है। गर्मियों के दिनों में सूर्य की गर्मी से पृथ्वी समुद्र के जल की अपेक्षा शीघ्र गर्म हो जाती है जिससे स्थल की वायु गर्म होकर ऊपर उठती है और समुद्र की ओर जाती है और इसका स्थान घेरने के लिए समुद्र की ओर से ठंडी वायु चलने लगती है। इस प्रकार की संवहन धाराओं को समुद्री समीर कहते हैं। समुद्र की ओर से आने वाली वायु को समुद्र समीर कहते हैं। तटीय क्षेत्रों में दिन के समय स्थल शीघ्र गर्म हो जाता है।

ऊष्मा

थल समीर

स्थल से ठंडी वायु समुद्र की ओर बहती है जिसे थल समीर कहते है। रात्रि में समुद्र का जल धीमी गति से ठंडा होता है। थल समीर, एक स्थानीय पवन प्रणाली है जो देर रात जमीन से पानी की ओर प्रवाहित होती है। भूमि की हवाएं पानी के बड़े निकायों से सटे समुद्र तटों के साथ समुद्री हवाओं के साथ वैकल्पिक होती हैं।

ऊष्मा

दोनों पानी की सतह और आसन्न भूमि की सतह के गर्म होने या ठंडा होने के बीच होने वाले अंतर से प्रेरित होते हैं। थल समीर देर रात को चलती है। यह शुष्क भूमि भी पानी की तुलना में अधिक तेज़ी से ठंडी होती है और सूर्यास्त के बाद, एक समुद्री हवा समाप्त हो जाती है और हवा इसके बजाय भूमि से समुद्र की ओर बहती है। तटीय क्षेत्रों की प्रचलित हवाओं में समुद्री हवाएं और भूमि की हवाएं दोनों महत्वपूर्ण कारक हैं।

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