अध्याय-3

कक्षा 7 सामाजिक विज्ञान भूगोल अध्याय-3

हमारी बदलती पृथ्वी

हमारी बदलती पृथ्वी

स्थलमंडल अनेक प्लेटों में विभाजित है , जिन्हे स्थलमंडलीय प्लेट कहते है। ये प्लेट हमेशा धीमी गति से चारों तरफ घूमती रहती हैं , ऐसा पृथ्वी के अंदर पिघले हुए मैग्मा में होने वाले गति के कारण होता है। ये वृत्तीय रूप में घूमता रहता है।

हमारी बदलती पृथ्वी

अंतर्जनित बल

प्लेट की इस गति के कारण पृथ्वी की सतह पर परिवर्तन होता है। पृथ्वी की गति को उन बलों के आधार पर विभाजित किया गया है जिनके कारण ये गतियाँ उत्पन्न होती हैं। जो बल पृथ्वी के आंतरिक भाग में घटित होते हैं उन्हें अंतर्जनित बल (एंडोजेनिक फोर्स) कहते हैं।

बहिर्जनिक बल

जो बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होते हैं उन्हें बहिर्जनिक बल (एक्सोजेनिक फोर्स) कहते हैं।

ज्वालामुखी

भू-पृष्ठ का वह छिद्र या दरार अथवा पतला मार्ग जिससे भूपृष्ठ के नीचे की पिघली चट्टान धरातल पर आ जाती है ज्वालामुखी कहलाता है। ज्वालामुखी का उद्गार तथा उससे निकलने वाले पदार्थों के बाहर प्रकट होने की प्रक्रिया को ‘ज्वालामुखी के प्रकट होने की क्रिया’ कहा जाता है।

हमारी बदलती पृथ्वी

पृथ्वी के भीतरी भागों में चट्टानों के दबाव के चलते या रेडियोधर्मी खनिजों (यूरेनियम, थोरियम) के टुटते रहने के कारण ताप में वृद्धि होती है। इस ताप वृद्धि से भीतर की चट्टानें गर्म होकर फैलने तथा पिघलने लगती हैं। ज्वालामुखी उद्गार के फलस्वरूप निकलने वाले पदार्थ ठोस द्रव एवं गैस तीनों रूपों में होते हैं। गैसें तीव्र विस्फोट के साथ धरातल को तोड़कर बाहर निकलती हैं। इस गैसों में 80-90% भाग जलवाष्प का होता है। अन्य गैसों में कार्बन-डाईऑक्साइड एवं सल्फर डाईऑक्साइड आदि है। तरल पदार्थों में लावा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो बाहर निकलकर फैल जाता है।

ज्वालामुखी की परिभाषा

प्रायः एक गोलाकार छिद्र अथवा खुला हुआ भाग जिससे होकर पृथ्वी के अत्यंत तप्त भू-गर्भ से गैस, तरल लावा, जल एवं चट्टानों के टुकड़ों से युक्त गर्म पदार्थ पृथ्वी के धरातल पर प्रकट होते हैं, ज्वालामुखी कहलाता है।

ज्वालामुखी क्रिया के दो रूप होते हैं-

  1. अभ्यान्तरिक अथवा धरातल के नीचे
  2. बाह्य अथवा धरातल के ऊपर

आभ्यानरक क्रिया में मैग्मा आदि धरातल के नीचे ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है तथा इनमें प्रमुख हैं- बैथोलिथ, फैकोलिथ, सिल तथा डाइक। बाह्य क्रिया में गर्म पदार्थ के धरातल पर प्रकट होने की क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इनमें प्रमुख हैं- ज्वालामुखी, धरातलीय प्रवाह, गर्म जल के स्त्रोत, गीजर, तथा धुंआरे।

ज्वालामुखी उद्गार के कारण

  • भूगर्भिक असन्तुलन (Isostatic Disequilibsium)
  • गैसों की उत्पत्ति (Formation of Gases)
  • भूगर्भ में ताप वृद्धि
  • दाब में कमी
  • प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonic)

भूकंप

पृथ्वी के धरातल का अचानक कंपन करना भू-कंप कहलाता है। अधिकांश भूकंप सूक्ष्म कंपन होते हैं। तीव्र भूकंप सूक्ष्म कंपन से प्रारंभ होकर उन कंपनों में बदल जाते हैं और विनाश कर देते हैं। भूकंप के झटके मात्र कुछ सेकण्ड के लिए आते हैं। भूकंप एक ऐसी अप्रत्याशित आकस्मिक घटना है जो अचानक ही उत्पन्न हो जाती है।

हमारी बदलती पृथ्वी

भूकंप के झटके वर्ष के किसी भी महीने, महीने के किसी भी दिन और दिन के किसी भी समय में अचानक आ सकते हैं। भूकंप के झटके बिना चेतावनी के आते हैं। भूकंप की आशंकाओं को ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिकों ने अथक प्रयत्न किया परंतु अभी तक इसका पूर्वाभास एवं भविष्यवाणी संभव नहीं हो पाया है।

भूकंप विज्ञान

भूकंप विज्ञान या सिस्मोलॉजी विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत जिसमें सिस्मोग्राफ द्वारा अंकित लहरों का अध्ययन किया जाता है।

भूकंप का प्रभाव भू सतह के ऊपर होता है किंतु भूकंप की घटना भूसतह के नीचे होती है। जिस स्थान पर भूकंप की घटना प्रारंभ होती है, उस स्थान को भूकंप का उत्पत्ति केन्द्र या भूकंप मूल कहते हैं। यह भूगर्भ में स्थित वह स्थान होता है जहाँ से भूकंप से उत्पन्न लहरें प्रसारित होती हैं। इस प्रकार की लहरों को भूकंपीय लहर कहते हैं। भूकम्प मूल के ठीक ऊपर धरातल पर भूकम्प का वह केन्द्र होता है, जहाँ पर भूकम्पीय लहरों का ज्ञान सर्वप्रथम होता है। इस स्थान को भूकम्प केन्द्र अथा ‘अभिकेन्द्र’ कहा जाता है।

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भूकंप अभिकेन्द्र सदैव भूकंप मूल के ठीक ऊपर समकोण पर स्थित होता है तथा भूकंप से प्रभावित क्षेत्रों में यह भाग भूकम्प मूल से सबसे नजदीक होता है। अभिकेन्द्र पर लगे यंत्र द्वारा भूकम्पीय लहरों का अंकन किया जाता है। इस यंत्र को भूकंप लेखन यंत्र या सिस्मोग्राफ कहते हैं। इसकी सहायता से भूकम्पीय लहरों की गति तथा उनके उत्पत्ति स्थान एवं प्रभावित क्षेत्रों के विषय में जानकारी प्राप्त हो जाती है। भारत में पूना, मुम्बई, देहरादून, दिल्ली, कोलकाता आदि में भूकम्प लेखन यंत्रों की स्थापना की गई है।

जब भूकंप मूल से भूकम्प प्रारंभ होता है, तो इस केन्द्र से भूकम्पीय लहरें उठने लगती हैं, तथा सर्वप्रथम ये भूकम्प अभिकेन्द्र पर पहुँचती हैं। यहाँ पर सीस्मोग्राफ द्वारा इनका अंकन कर लिया जाता है।

भूकंपीय लहरें

भूकंपीय लहरों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

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  • प्राथमिक अथवा प्रधान – लहरें इन्हें अंग्रेजी के (P) से निरूपित किया जाता है। ये लहरें ध्वनि तरंगों के समान होती हैं, तथा इनमें अणुओं की कंपन लहरों की दिशा में आगे या पीछे होती रहती है। चूंकि इन लहरों से दबाव पड़ता है, अतः इन्हें दबाववाली लहरें कहते हैं। इन लहरों का उद्भव चट्टानों के कणों के सम्पीड़न से होता है।
  • अनुप्रस्थ लहरें – इन्हें अंग्रेजी के (S) से निरूपित किया जाता है। ये लहरें प्रकाश तरंग के समान होती हैं। इनमें अणु की गति लहर क समकोण पर होती है। इन्हें द्वितीयक अथवा गौण लहरें भी कहते हैं, क्योंकि ये प्राथमिक सीधी लहर के बाद प्रकट होती हैं। इनकी गति प्राथमिक लहर की अपेक्षा कम होती है। इस लहर को विध्वंसक लहर भी कहते हैं।
  • धरातलीय लहरें – इन्हें अंग्रेजी के (L) से निरूपित किया जाता है। ये लहरें प्राथमिक तथा द्वितीयक लहरों की तुलना में कम वेगवान होती है तथा इनका भ्रमण पथ पृथ्वी का धरातलीय भाग ही होता है। इन्हें दोनों लहरों की तुलना में अधिक लंबा पथ तय करना पड़ता है। इस कारण ये तरंगे धरातल पर सबसे विलंब से पहुँचती है।। इन तरंगों को लंबी अवधि वाली तरंगें भी कहते हैं। ये लहरें जल से होकर गुजर सकती हैं इसलिए इनका प्रभाव जल तथा थल दोनों में होता है, और ये सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं।

भूकंप का उदगम केंद्र और अभिकेन्द्र

इसी प्रकार, स्थलमंडलीय प्लेटों के गति करने पर पृथ्वी की सतह पर कंपन होता है। यह कंपन पृथ्वी के चारों ओर गति कर सकता है। इस कंपन को भूकंप कहते ह भू-पर्पटी के नीचे वह स्थान जहाँ कंपन आरंभ होता है, उद्‌गम केंद्र कहलाता है। उद्‌गम केंद्र के भूसतह पर उसके निकटतम स्थान को अधिकेंद्र कहते हैं। अधिकेंद्र से कंपन बाहर की ओर तरंगों के रूप में गमन करती हैं। अधिकेंद्र के निकटतम भाग में सर्वाधिक हानि होती है एवं अधिकेंद्र से दूरी बढ़ने के साथ भूकंप की तीव्रता धीरे-धीरे कम होती जाती है।

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स्थलाकृतियाँ

स्थलाकृति की परिभाषाएँ –

(1) बेविल नामक जर्मन विद्वान ने स्थलाकृति की परिभाषा देते हुए यह स्पष्ट किया कि आकाश एवं पृथ्वी के धरातल का वह भाग जो प्रत्यक्ष रूपा से दृष्टिगोचर हो वह स्थलाकति का द्योतक है।

(2) ग्रेनों के अनुसार दृष्टिकोण क्षेत्र को स्थलाकृति के अन्र्तगत माना है। कुछ जर्मन विद्धानों ने भौगोलिक क्षेत्र को स्थलाकृति के रूपा में माना है।

(3) लाउन्टीसेच नामक विद्वान ने अभौतिक तत्वों जैसे, जातिय एवं भाषा सम्बन्धी तत्वों को भी इसके क्षेत्र के अन्तर्गत सम्मिलित किया है।

(4) मेउल नामक विद्वान ने स्थलाकति के अंतर्गत राजनीतिक तत्वों को भी सम्मिलित किया है तथा यह स्पष्ट किया कि कोई भी राजनीतिक इकाई क्यों न हो परन्तु उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उस प्रदेश की स्थलाकृति से आंका जा सकता है।

(5) क्रीव ने भमि एवं स्थलाकति में विभिन्नता व्यक्त करते हुए यह स्पष्ट किया कि स्थलाकृति में भूमि के वे भाग है जिनमें एक समान विशेषताएँ लक्षित होते हैं।

नदी

 नदी के जल से दृश्य भूमि का अपरदन होता है। जब नदी किसी खड़े ढाल वाले स्थान से अत्यधिक कठोर शैल या खड़े ढाल वाली घाटी में गिरती है, तो यह जलप्रपात बनाती है।

जब नदी मैदानों क्षेत्र में प्रवेश करती है, तो वह मोड़दार मार्ग पर बहने लगती है जिसे विसर्प कहते है।

इसके बाद विसर्पों के किनारों पर लगातार अपरदन एवं निक्षेपण शुरू हो जाता है। विसर्प लूप के सिरे निकट आते जाते है। समय के साथ विसर्प लूप से नदी से कट एक अलग झील बनाते है जिसे चापझील भी कहते है।

कभी-कभी नदी अपने तटों से बाहर बहने लगती है जिसे निकटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है। नदी के उत्थित तटों को तटबंध कहते हैं।

नदी अमल धाराओं में विभाजित हो जाती है, जिनको वितरिका खा जाता है। नदी अपने साथ मलबे का निक्षेपण करती हुई मुहानों के अवसादों के सग्रंह से डेल्टा का निर्माण करती है।

समुद्री तरंग के अपरदन एवं निक्षेपण तटीय स्थलाकृतियाँ बनाते हैं। समुद्री तरंगे लगातार शैलों से टकराती रहती हैं, जिसे दरार विकसित होती है।

समय के साथ बड़ी और चौड़ी होती जाती हैं, इनको समुद्री गुफा कहते हैं। इन गुफाओं के बड़े होते जाने पर इनमें केवल छत ही बचती है, जिससे तटीय मेहराब बनते हैं। लगातार अपरदन छत को भी तोड़ देता है जिसे केवल दीवारें बचती जिसे स्टैक कहते हैं।

समुद्री जल के ऊपर लगभग ऊध्वर्रधर उठे हुए ऊँचे तटों को भी समुद्र भृगु कहते हैं।

हिमनद

हिमनद अथवा हिमानी बर्फ़ की नदियाँ होती है। छोटे-बड़े शैल, रेत, एवं तलछट मिट्टी निक्षेपित होते हैं। ये निक्षेपण हिमनद हिमोढ़ का निर्माण करते हैं।

पवन

रेगिस्तान में पवन, अपरदन एवं निक्षेपण का प्रमुख कारक है। रेगिस्तान आप छत्रक के आकार के शैल देख सकते है, जिन्हे सामान्यत: छत्रक शैल कहते है।

पवन चलने से रेत को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। जब पवन का बहाव रुकता है तो यह रेट गिरकर छोटी पहाड़ी बनाती है। इनको बालू डिब्बा का हैं।

जब ये बालू कण विस्तृत क्षेत्र में निक्षेपित हो जाते है, तो इसे लोएस कहते हैं।

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